ज्ञान लिया सब सीख सुणी, मन का मैल न जाइ। गुरु विचारा क्या करै,शिष्य विषे हलाहल खाइ।
संतशिरोमणि महर्षि श्री दादू जी महाराज कहते हैं कि जिन्होंने श्रुति-स्मृति के ज्ञाता विद्वानों से वेदांतजन्य ज्ञान जाना भी सुना भी, पढ़ा भी, उसे कण्ठस्थ भी किया, किंतु विषयासक्त मन होने से हृदय में धारण नहीं किया। ऐसे मनुष्य अविवेकी होते हैं। प्रतिक्षण उनके पाप बढ़ते रहते हैं और उनकी सदगुरु में भी अपूज्य तत्व की भावना बढ़ जाती है। वे धन-मान के कारण कभी ज्ञान मार्ग का अनुसरण नहीं करते, किंतु अधम गति को प्राप्त होते हैं। श्रीमद्भगवतगीता में इसी अभिप्राय से लिखा है नास्तिक बुद्धि को धारण करने वाले, परलोक साधन से रहित, अल्प सुख में ही रमण करने वाले, हिंसात्मक कर्म करते हुए पुरूष जगत के शत्रु है। उपनिषद में जिसके स्वयं बुद्धि नहीं उसका शास्त्र भी क्या भला कर सकते हैं। जैसे अंधे का, दर्पण भी क्या सहयोग कर सकता है। इसी अभीप्राय से महाराज श्रीदादू जी कह रहे हैं "विषे हलाहल खाई" ऐसे अविवेकी व्यक्तियों का यदि कल्याण नहीं हो तो इसमें गुरु का क्या दोष है।