।। संतशिरोमणि महर्षि श्रीदादू दयाल जी महाराज द्वारा -चंचल मन को उपदेश।।
मन वाहला रे, कछु बिचारी खेल, पड़शे रे गढ़ भेल॥ बहु भांतें दुख देइगा वाहला, ज्यों तिल मां लीजै तेल। करणी ताहरी सोधसी, होशी रे सिर हेल॥ अबहीं थें करि लीजिये रे वाहला, सांई सेती मेल। दादू संग न छाडी पीव का, पाई है गुण की बेल॥ अर्थात हे मन ! मैं तुझे समझाता हूँ कि शुभ-अशुभ कर्मों को विचार कर शुभकर्मों को ही कर। जो शास्त्रनिषिद्ध अशुभकर्म हैं, उनको मत कर अन्यथा उन कर्मों से तेरा अन्त:करण मैला हो जायगा। देख तो सही, तेरे अन्त:करण में कामादि चोर प्रविष्ट होकर तेरे ज्ञान को नष्ट कर रहे हैं। वे चोर तेरा विनाश कर डालेंगे और जब कर्म फल देने का समय आयेगा तब तेरे कर्मों की गणना की जायगी, उस समय अवश्य दण्ड मिलेगा। जैसे घाणी में तिल पेला जाता है, वैसे ही तू भी कष्टों से पीड़ित हो जायेगा। यह दुर्लभ शरीर प्रभु प्राप्ति के लिये मिला है, न कि विषय भोग के लिये। अत: अभी से दुःखभंजक राम का भजन कर और विषयों का संग छोड़ दे।
श्रीमद्भागवत में भी कहा है कि मनुष्य अवश्य ही प्रमादवश कुकर्म करने लगता है। उसकी यह प्रवृत्ति इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये ही हैं। मैं इसे अच्छा नहीं मानता क्योंकि इसके कारण आत्मा को यह मिथ्या और दुःख दायक शरीर प्राप्त होता है। जब तक जीव को आत्म तत्व की जिज्ञासा नहीं होती, तब तक अज्ञानवश देहादिक के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है। जब तक यह लौकिक वैदिक कर्मों में फंसा रहता है, तब तक मन में कर्म की वासनाएँ भी बनी रहती हैं और उनसे देहबन्धन भी होता रहता है।