बाबा मन अपराधी मेरा, कह्या न मानै तेरा॥ माया मोह मद माता, कनक कामिनी राता॥१॥ काम क्रोध अहंकारा, भावै विषय विकारा॥२॥ काल मीच नहिं सूझै, आतमराम न बूझै॥३॥ समर्थ सिरजनहारा, दादू करै पुकारा॥४॥ हे पितामह परमेश्वर ! मेरा मन महा अपराधी है। मायिक मोह-मद आदि दोषों में उन्मत्त हुआ कनक, कामनियों में ही दिन रात अनुरक्त रहता है। इस मन को काम, क्रोध, अहंकार तथा विषय-विकार ही अच्छे लगते हैं। जाती हुई आयु और आते हुए काल को नहीं देखता। अपने ही स्वरूप राम को जानने का भी प्रयत्न नहीं करता। अतः आप इस मन को समझाओ। ऐसी मेरी प्रार्थना है आपसे, जिससे मैं भवबन्धन से मुक्त हो जाऊं। नरसिंह पु. में लिखा है – तृण से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त जो चार प्रकार के प्राणी हैं, वे तथा समस्त चराचर जगत् जिसकी माया से सुप्त हो रहा है, उस विष्णु भगवान् की कृपा से यदि कोई जाग उठे तो वह ज्ञानवान् हो जाता है। वह ही देवताओं के लिये भी दुस्तर इस संसार सागर को पार कर जाता है। जो मनुष्य भोग और ऐश्वर्य के मद से मोहित और तत्त्वज्ञान से विमुख है, वह संसार रूपी महान् कीचड़ में इस तरह डूब जाता है जैसे कीचड में फँसी हुई गाय हो। जो रेशम के कीड़ों की तरह अपने को कर्मों के बन्धनों में बांध लेता है, उसके लिये करोडों जन्मों में भी मुक्ति की संभावना नहीं देखता। इसलिये हे नारद ! सदासमाहित चित्त से सर्वेश्वर अविनाशी देवाधिदेव भगवान् विष्णु का आराधन और ध्यान करना चाहिये।
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