धार्मिक उपदेश: धर्म कर्म

AYUSH ANTIMA
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माया संसार की सब झूठी, मात पिता सब उभे भाई, तिनहिं देखतां लूटे॥ जब लग जीव काया में था रे, क्षण बैठी क्षण ऊठी।
हंस जु था सो खेल गया रे, तब थें संगति छूटी॥ ए दिन पूगे आयु घटानी, तब निचिन्त होइ सूती।
दादूदास कहै ऐसी काया, जैसे गगरिया फूटी॥ संतशिरोमणि श्री दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि यह संसार की माया मिथ्या ही है और यह शरीर भी मिथ्या है क्योंकि यह क्षणभङ्गुर है। यद्यपि यह शरीर भोगायन नाम से प्रसिद्ध है। इसमें रहकर जीव भोगों को भोगता है। इसलिये जीव इस से ज्यादा प्रेम करता है और इसको सुख का हेतु मानता है लेकिन यह दुःख देने वाला ही है। माता-पिता, भाई-बान्धवों के देखते-देखते ही यह क्षण में ही नष्ट हो जाता है। जब तक इसमें जीव का निवास है तभी तक यह क्रियाशील रहता है। जीव के निकलते ही मुर्दा हो जाता है तथा अस्पृश्य अपवित्र हो जाता है। ऐसे शरीर में नित्यता कैसे मानी जा सकती है ? क्या यह कभी पवित्र भी हो सकता है ? जब इस दृश्य संसार में कहीं भी सत्यता नजर नहीं आती तो यह शरीर कैसे नित्य हो सकता है किन्तु यह अर्धदग्ध की तरह मृत तुल्य होता हुआ भी दुष्ट जनता को सत्यत्व, शुचित्व बुद्धि से ठगता रहता है। यह शरीर बूढा होते ही कुछ ही दिनों में गिर जायगा, ऐसा अनुभव करके इसकी ममता को त्याग दो। घड़े की तरह यह क्षणभङ्गुर है ।
योगवसिष्ठ में कहा है कि- हे मुने ! यह शरीर रक्त मांस से बना हुआ है। इसका एक ही धर्म है कि विनाश। फिर इसके बाहर और भीतर का विचार करें तो यह रक्तमांसमय ही है तो आप ही बताइये कि इसमें कौन सी सुन्दरता है ? हे तात ! जो शरीर मरने के समय जीव का जरा भी अनुसरण नहीं करता, उसका साथ छोड़ देता है तो वह कितना बड़ा कृतघ्न है। अत: बुद्धिमान् मनुष्यों की इस पर क्या आस्था हो सकती है।

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