हम तैं दूर रही गति तेरी। तुम हो तैसे तुम हीं जानो, कहा बपुरी मति मेरी॥ मन तैं अगम दृष्टि अगोचर, मनसा की गम नाँहीं।सुरति समाइ बुद्धि बल थाके, वचन न पहुँचैं तांहीं॥ जोग न ध्यान ज्ञान गम नांही, समझ समझ सब हारे। उनमनी रहत प्राण घट साधे, पार न गहत तुम्हारे॥ खोज परे गति जाइ न जानी, अगह गहन कैसे आवे।
दादू अविगत देहु दया कर, भाग बड़े सो पावे॥ संतप्रवर श्रीदादू दयाल जी महाराज अपने उपदेश में कहते हैं कि हे प्रभो ! आपके स्वरूप का ज्ञान मन इन्द्रियों से भी परे है। जैसा आपका स्वरूप है वैसा तो आप ही अपने को जान सकते हैं। मेरी यह तुच्छ बुद्धि तो जान ही कैसे सकती है ? आप मन से भी अगम्य, दृष्टि से भी अदृश्य, बुद्धि से भी अज्ञेय हैं। अतः आपको कोई भी नहीं जान सकता। जहां पर आपको जानने में बुद्धि भी कुण्ठित हो जाती है तो यह विचारी वाणी तो कैसे जान सकती है ? सत्पुरुष भी आपको बुद्धि की वृत्ति द्वारा ही जान पाते हैं। फल व्याप्ति से तो कोई जान ही नहीं सकता। आपका वास्तविक स्वरूप तो ज्ञान, ध्यान, योग से भी नहीं जाना जा सकता है। इसलिये योगी, ध्यानी, ज्ञानी मध्य में ही बिना जाने हार मान लेते हैं और पार नहीं पा सके हैं। जो प्राणी को रोक कर समाधिनिष्ठ हैं, वे भी आपके स्वरूप का अन्त नहीं जान सके और जो सर्वव्यापक आपको खोज रहे हैं, वे भी खोज खोजकर थक गये क्योंकि आपका स्वरूप तो अग्राह्य है, अतः आपको कोई भी नहीं जान पाता परन्तु कोई भाग्यशाली जिन पर आपकी कृपा हो गई है, वे ही आपकी कृपा के द्वारा जान सकते हैं। कठ में लिखा है कि – यह परब्रहम परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत सुनने से प्राप्त हो सकता है, किन्तु जिसको परमात्मा स्वीकार कर लेते हैं, उसी के द्वारा आप जाने जाते हैं। जिसके हृदय में उसको जानने की उत्कट इच्छा तथा प्रेम होता है। ऐसे ही साधक पर भगवान् कृपा करते हैं और अपनी योगमाया को हटाकर उसके आगे सच्चिदानन्द रूप में प्रकट हो जाते हैं।