मोहन माली सहज समाना, कोई जाणैं साध सुजाना॥ काया बाड़ी मांही माली, तहाँ रास बनाया। सेवग सौं स्वामी खेलन को, आप दया कर आया॥ बाहर भीतर सर्व निरंतर, सब में रह्या समाई। परगट गुप्त, गुप्त पुनि परगट, अविगत लख्या न जाई॥ ता माली की अकथ कहानी, कहत कही नहिं आवै। अगम अगोचर करत अनन्दा, दादू ये जस गावै॥
संतप्रवर श्रीदादू दयाल जी महाराज कहते है कि यह सारा विश्व उस परमात्मा के खेलने का बगीचा है। वह ही इसका पैदा करने वाला तथा पालन संहार करने वाला है। जैसे माली बगीचे में पेड़ों को रोपता है उखाड़ता है और रक्षा भी करता है। वह प्रभु सारे विश्व में व्याप्त हैं, इस लीला को कोई ही जानता है। विश्व की तरह सारे प्राणियों के शरीरों में रहता हैं। मेरा प्रभु मेरे साथ क्रीड़ा करने के लिये मेरे अन्तःकरण में प्रकट होकर वृत्ति रूप गोपियों के साथ रासलीला करता हुआ मुझे आनन्द दे रहा है। विश्व के अन्दर-बाहर रहता हुआ सर्वभूतों में व्याप्त हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि चर अचर प्राणियों के बाहर-भीतर वही है। चर-अचर भी वही है और सूक्ष्म होने से अविज्ञेय हैं तथा अति समीप में तथा दूर में भी स्थित हैं। न जानने वाले के लिये दूर हैं, सबकी आत्मा होने से सबके पास हैं ,वह कभी प्रकट होता हैं और कभी गुप्त हो जाता हैं और गुप्त होकर फिर प्रकट हो जाता हैं। वह इन्द्रियातीत होने से बाह्यइन्द्रियों से नहीं दीखता उस मालाकार रूप ब्रह्म की कथा अकथनीय हैं। उसको वाणी से यथार्थ रूप से कोई नहीं कह सकता। वह प्रभु मन से भी नहीं जाने जाते। इन्द्रियातीत होकर भी हमको सुख दे रहे हैं, मैं उसी ब्रह्म का यशोगान करता हूँ। सनत्सुजात ने लिखा है कि चारों वेदों से भी उसे कोई साक्षात् नहीं जान सकता है क्योंकि वह अगमअगोचर है। उसका वर्णन कोई कैसे कर सकता हैं। संवित् रूप परमात्मा स्वयं ज्ञाता हैं। वह किसी का भी ज्ञेय नहीं हो सकता, जो कुछ ज्ञेय है वह प्रकाश्य हैं, ज्ञाता प्रकाशक हैं। अतः वेद भी प्रकाश्य है। अतः जो ज्ञेय (वेद्य) है वह ज्ञाता को कैसे जान सकता है। ज्ञेय तो ज्ञेय को भी नहीं जान सकता अर्थात् वेद्य से वेद्य को नहीं जाना जा सकता। तब उससे वेद (ज्ञान) रूप ब्रह्म प्रत्यक्ष कैसे होगा। जो व्यक्ति वेदरूप ज्ञान को जानने वाला हैं, वह संपूर्ण ज्ञेयों को अर्थात् वैद्यों को जान जाता हैं। इस ब्रह्मतत्त्व के जानने वाले की दृष्टि में जगत् कुछ और ही है, जो इस तत्त्व से अनभिज्ञ हैं उसकी दृष्टि में जगत् कुछ और ही हैं।