झुंझुनू भाजपा आखिर निष्ठावान समर्पित सिपाहियों को मुख्यधारा में क्यों नहीं ला रही

AYUSH ANTIMA
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भाजपा इस बात का दंभ भरती है कि निष्ठावान व पार्टी के हितों को समर्पित कार्यकर्ताओ को तवज्जो देती है। इसके विपरीत भाजपा संगठन के पूर्व अध्यक्ष ने भाजपा के सिध्दांतों के खिलाफ आचरण किया। अन्य दलों से आये व्यक्तियों को संगठन में जगह दी, जिनका कभी भी भाजपा की नितियों व सिध्दांतों से दूर का वास्ता भी नहीं रहा। झुंझुनू के उपचुनाव में भी कुछ ऐसा नजारा देखने को मिला कि पूर्व जिलाध्यक्ष को मंच पर जगह मिली जबकि बहुत से पूर्व जिलाध्यक्ष है, जो आज भी सक्रिय हैं और भाजपा के प्रति पूरी निष्ठा से समर्पित है। जिनमें से राजेन्द्र शर्मा, राजीव सिंह शेखावत व सुभाष शर्मा का नाम प्रमुखता से आता है। क्या इनमें से कोई भी मंच पर बैठने लायक नहीं था ? निश्चित रूप से वही धड़ेबाजी का नतीजा है, जिसको पूर्व जिलाध्यक्ष ने हवा दी व पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के समर्थक होने के कारण इनको दरकिनार किया गया। सूत्रों की मानें तो यह वही जिलाध्यक्ष है, जो विधानसभा चुनावों में खुद के बूथ पर भी भाजपा उम्मीदवार को बढ़त नहीं दिला पाए। इसी से उनकी लोकप्रियता व आमजन में पकड़ का आभास हो जाता है लेकिन वर्तमान जिलाध्यक्ष बनवारी लाल सैनी ने उस धड़ेबाजी को खत्म किया, उसी का परिणाम रहा कि भाजपा ने उपचुनाव में रिकार्ड जीत के साथ कांग्रेस के अजेय दुर्ग को ध्वस्त किया। वर्तमान जिलाध्यक्ष सभी कर्मठ कार्यकर्ताओ को बिना भेदभाव किए साथ लेकर चलने वाले हैं। उनके कुशल नेतृत्व ने झुंझुनूं जिला भाजपा संगठन को मजबूती प्रदान की है। भाजपा में संगठन चुनावी पर्व चल रहा है। संगठन में नियुक्ति भाजपा का विशेषाधिकार है लेकिन इन संगठनात्मक चुनावों में निश्चित रूप से उन कर्मठ व निष्ठावान कार्यकर्ताओ को तवज्जो दी जानी चाहिए, जो हासिए पर चले गये थे। इसके साथ ही जातीगत समीकरण का भी विशेष ध्यान रखना होगा, जिससे हर जाति को भाजपा के प्रति विश्वास की भावना जागृत हो कि भाजपा सबको साथ लेकर चलने वाला विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल है। सरकार व संगठन में जातिगत संतुलन कायम रखना होगा, जिससे झुंझुनूं के आवाम को पता चले कि यह एक विशेष जाति का ही राजनीतिक दल नहीं है, इसमें छतीस कौम की भागीदारी है। विदित हो चुनाव एक जाति विशेष के वोटो से नहीं जीते जाते। जिस उम्मीदवार पर सर्व जाति का आशीर्वाद होता है, वहीं विधानसभा या लोकसभा की शोभा बढाता है। किसी भी सांसद या विधायक को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि वह खुद की जाति के वोटो से विजयी हो सकता है। निश्चित रूप से संगठनात्मक नियुक्तियो में जातिगत समीकरण की झलक देखने को मिल सकती है।

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