ना जाने लोग, किस अभिमान में जी रहे हैं। मारकर अंतरात्मा की आवाज, बस दंभ में बोझिल हो रहे हैं। कोई रुप के बोझ में लद रहा है, कोई पद को स्थाई समझ रहा है, कोई पैसे के मद में मदहोश है, किसी के पास ताकत का जोश है। नश्वर को अनश्वर जानकर "मैं अमर" के भ्रम में जी रहे हैं।।
उगता सूरज भी डूबता है, शायद यह बात हम समझ पाते तो अहंकार नजदीक न आता। हम मानवता की परिभाषा पढ़ पाते
तन की सुंदरता, पद का अभिमान, यह सब बौना नजर आएगा। जब दीप जले हृदय में ज्ञान का तो मन भी सुंदर हो जाएगा। आओ मन को सुंदर बनाते है, भूल कर दंभ अभिमान को, अनमोल "वसुधैव कुटुंबकम्" को अपनाते हैं।।