साहित्य बनाम राजनीति

AYUSH ANTIMA
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साहित्य राजनीति को कई प्रकार से प्रभावित करता है, जैसे राष्ट्रवाद और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देना। जनहित के मुद्दे प्रखर रूप से उठाकर राजनीतिक चेतना जगाना। साहित्य राजनीतिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करने के लिए सशक्त व कारगर हथियार है।‌ साहित्य समाज की समस्याओं, कुरीतियों और राजनीतिक वयवसथि की कमियों को उजागर करता है। यह लोगो मे जागरूकता पैदा करने के साथ ही बेहतर भविष्य के लिए सोचने को मजबूर करता है। साहित्य लोगों की आलोचनात्मक सोच को बेहतर बनाने के साथ ही एक दिशा प्रदान करता है, जिससे राजनीतिक मुद्दे लोग समझ सके। साहित्य राजनीतिक रूप से बहिष्कृत और हासिए पर पड़े लोगों की आवाज बनकर उनका प्रतिनिधित्व करता है। साहित्य व राजनिति को लेकर एक वाक्या इतिहास के पन्नों में दर्ज है। 1955 में लाल किले पर हर साल की भांति कवि सम्मेलन में मुख्य अतिथि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु थे। पंडित जी लाल किले की सीढीयो पर चढ़ रहे थे तो उनके पैर जरा लड़खड़ा गये तो उनके साथ चल रहे महाकवि दिनकर जी ने पंडित नेहरू को सहारा दिया। इस पर नेहरू ने दिनकर का धन्यवाद किया तो दिनकर जी ने सहज भाव से कहा कि इसमें धन्यवाद की कोई आवश्यकता नहीं, जब जब राजनीति लड़खड़ाएगी साहित्य उसे सहारा देगा। उक्त प्रसंग को यदि वर्तमान में देखें तो लेखनी किसी की दोस्त या दुश्मन नहीं होती जो भी लिखा जायेगा वह तथा स्थिति से लिखा जाएगा, जिससे राजनेता सबक ले कि हमने यह गलती की है। लेखनी का केवल एक ही धर्म है कि तथा स्थिति से आमजन को अवगत करवाया जाए। राजनेताओं द्वारा किए गये जनहित के कामों की प्रशंसा होनी चाहिए व जन विरोधी नितियों का विरोध होना चाहिए लेकिन इस विरोध को आज के नेता व्यक्तिगत ले लेते हैं जबकि सार्थक विरोध को राजनेताओं को स्वीकार करने की हिम्मत भी होनी चाहिए। साहित्य समाज का दर्पण होता है, जैसा चेहरा राजनीति का होगा, वहीं इस दर्पण में दिखाई देता है। साहित्य आमजन व सरकार के बीच सेतु का काम करता है, इसलिए निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर इस सेतु को जर्जर करने का काम नहीं होना चाहिए। इसमें भी संदेह नहीं होना चाहिए कि सवाल सत्ता से ही किए जाते रहे है और आगे भी सत्ता से ही सवाल किए जायेंगे। कलम किसी की मोहताज नहीं कि किसी के गुणगान में व्यस्त रहे। आज के दौर में साहित्यकार अक्सर राजनीति के प्रतिबद्ध हो जाते हैं, जिससे उनकी निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है और साहित्य अपनी राह से भटक सकता है। साहित्य राजनीति में उस व्यक्ति को आवाज देता है जिसके पास आवाज नहीं है।

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