*वर्दी की चमक के नीचे सुलगता बारूद: हरियाणा व राजस्थान में एक जैसे हालात

AYUSH ANTIMA
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राजस्थान और हरियाणा दो राज्य, मगर कहानी एक ही है। वहां भी पुलिस में असंतोष था तो यहां महा असन्तोष व्याप्त है। सरकार की उदासीनता के चलते अफसरों में काम करने की प्रवृति दम तोड़ चुकी है। अंसतोष पर पर्दा नही डाला गया तो राजस्थान में भी हरियाणा की तर्ज पर जबरदस्त विस्फोट हो सकता है। ऊपर राजनीति का शिकंजा, भीतर वर्दी में सुलगता गुस्सा। लगातार हस्तक्षेप, रुके तबादले, दबे अवसर और टूटा मनोबल। पुलिस तंत्र अब कानून नहीं, सत्ता का औजार बन चुकी है। सवाल यह नहीं कि असंतोष है या नहीं। अहम सवाल यह है कि यह फटेगा कब ? अगर यह असन्तोष फूट पड़ा तो स्थिति बड़ी भयावह होगी। सीएमओ और सचिवालय की आलमारी में महीनों से एक मोटी फाइल बंद पड़ी है। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की तबादला सूची तैयार है लेकिन मुख्यमंत्री कार्यालय से “हरी झंडी” नहीं मिलने से फाइल धूल खा रही है। राजीव शर्मा के डीजीपी बनने से बदलाव की उम्मीद थी, पर सिस्टम की जड़ता वैसी की वैसी ही है। अफसरों के नाम तय हैं, लेकिन मंजूरी नहीं। नतीजा ? वही चेहरे मलाईदार कुर्सियों पर टिके हैं, बाकी अफसर अपने भविष्य की धूल झाड़ रहे हैं।
जयपुर पुलिस आयुक्त की कुर्सी अब योग्यता नहीं, सिफारिशों की प्रयोगशाला बन चुकी है। वर्षों से कोई भी राजस्थान का अधिकारी वहां नहीं बैठा। इससे राजस्थान के अफसरों में आक्रोश व्याप्त है। सचिवालय के गलियारों और पुलिस अफसरों में रोज यह वाक्य गूंजता है कि “सूची तैयार है, पर हस्ताक्षर नहीं।” मुख्यमंत्री की चुप्पी इस ठहराव को ज्वालामुखी बना चुकी है। अब महज एक चिंगारी बाकी है। अगर यह फूट गई तो स्थिति हरियाणा से बदतर हो सकती है।
हरियाणा में यह ज्वालामुखी फूट चुका है। सात अक्टूबर को एक वरिष्ठ आईपीएस वाई पूरन कुमार की रहस्यमयी मौत ने पूरे राज्य को हिला दिया। शव के पास मिला नोट विभागीय भेदभाव और मानसिक उत्पीड़न से भरा था। अभी जांच शुरू ही हुई थी कि रोहतक में एक एएसआई ने वीडियो बनाकर खुदकुशी कर ली। उसने उसी अधिकारी पर भ्रष्टाचार और दबाव के आरोप लगाए। दोनों मौतें एक ही सच उजागर करती हैं। हरियाणा पुलिस में असंतोष अब आत्मघात बन चुका है। यह पहली बार नहीं हुआ। सालों से राजनीति ने पुलिस की रीढ़ को झुकाया, अफसरों को मोहरा बनाया और व्यवस्था को मौन। इस बार फर्क इतना है कि मौतों ने वह आवाज़ बुलंद कर दी है, जिसे अब कोई आदेश दबा नहीं सकता। हरियाणा के दफ्तरों में खामोशी है पर भीतर आग धधक रही है। यह आग अब पीड़ित नहीं, भस्म करने को तैयार है।
दोनों राज्यों की हालत समान है। राजस्थान में अफसर जिंदा हैं, अवसर मर चुके हैं। हरियाणा में अवसर की लड़ाई ने अफसरों की जान ले ली, बीमारी एक ही है । राजनीतिक दखल और प्रशासनिक सुस्ती। सत्ता के लिए पुलिस अब शासन की रीढ़ नहीं, रिमोट कंट्रोल बन चुकी है। राजस्थान में यह कंट्रोल फाइलों पर है, हरियाणा में यह कंट्रोल ज़िंदगियों पर। फर्क बस इतना कि एक ने बगावत दबा रखी है, दूसरे ने उसे जी लिया। सरकारें जानती हैं सब कुछ लेकिन खामोश हैं क्योंकि सुधार का मतलब है राजनीतिक पकड़ ढीली करना। सत्ता कभी पकड़ छोड़ती नहीं। राजस्थान में खामोशी धीरे-धीरे विस्फोट बन रही है। हरियाणा में यह विस्फोट पहले ही जानें निगल चुका है। अगर यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में यह चुप्पी पूरे सिस्टम को डस लेगी। राजस्थान की ठहरी फाइलें और हरियाणा की लाशें एक ही वाक्य कहती हैं कि “जब वर्दी राजनीति में बंध जाती है तो इंसाफ मर जाता है।” यह समय है जब मुख्यमंत्री अपनी चुप्पी तोड़ें और सिस्टम को सांस लेने दें क्योंकि अब जो वक्त गुज़र रहा है, वह इतिहास नहीं लिख रहा, वह विस्फोट गढ़ रहा है। राजस्थान के पुलिस अफसर एक ही सवाल पूछ रहे है कि सीएमओ अपनी जड़ता कब समाप्त करेगा। आज अफसरों को पद योग्यता के आधार पर नही, तिकड़म के आधार पर मिलता है। चाहे प्रशासनिक सेवा हो या पुलिस सेवा, कमोबेश दोनों की स्थिति एक जैसी है।
केसी विश्नोई को जेडीए से हटाकर एक ऐसे पुलिस अफसर को नियुक्त कर दिया, जो जेडीए का बेड़ा गर्क करने में सक्रिय है। 
ऐसे ही यूडीएच का कबाड़ा देबाशीष पुष्टि करने में लगे हुए है। मेडिकल की हालत भी किसी से छिपी नही है। इस महकमे का भगवान ही मालिक है। उधर सीएमओ में सतर्कता विभाग की कोई अहमियत नही है। सतर्कता विभाग के अधिकारी सीएमओ की धौंस देकर विकास कार्यो को गड्ढे में डालने में आमादा है। सीएमओ से जन राहत के नाम पर मिल रहा है केवल बाबाजी का ठुल्लू। गौरव श्रीवास्तव सुनते भी थे और निदान भी निकालते थे लेकिन आज स्थिति बदतर होती जा रही है। सीएमओ में डीआईजी के बजाय कैलाश विश्नोई जैसे प्रभावी व्यक्ति को नियुक्त किया जाना चाहिए ताकि जनता को मिल सके राहत। कोई यह बताने को तैयार नही है कि आरएएस से पदोन्नत हुए आईएएस का पदस्थापन अटका हुआ क्यो है ? जब कार्मिक सचिव केके पाठक जैसे व्यक्ति को रिलीव करने में महीना भर लग जाता है तो प्रशासनिक रफ्तार का अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है। फाइल को दबाने के बजाय दौड़ाने की जरूरत है, वरना हालात यहां भी हरियाणा से बदतर हो सकते है।

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