जयपुर: प्रदेश में एक बार फिर बहस छिड़ गई है कि क्या दो से अधिक बच्चों वाले व्यक्ति को निकाय और पंचायत चुनाव लड़ने की अनुमति दी जानी चाहिए। यह वही पुराना प्रश्न है, जो वर्षों पहले राजस्थान पंचायत राज अधिनियम, 1994 के तहत तय किया गया था कि दो से अधिक संतान रखने वाला व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकेगा। उस समय यह नियम जनसंख्या नियंत्रण और सामाजिक उत्तरदायित्व की दृष्टि से आवश्यक माना गया था लेकिन आज, बदलते सामाजिक और जनसंख्या परिदृश्य में यह प्रावधान पुनर्विचार के घेरे में है।
राज्य के नगरीय विकास मंत्री झाबर सिंह खर्रा ने हाल में कहा कि जब सरकारी कर्मचारियों को  दो-बच्चे नियम में छूट दी जा चुकी है, तो जनप्रतिनिधियों के लिए भेदभाव क्यों। उनका तर्क है कि लोकतंत्र समानता पर आधारित है और अगर कोई सरकारी पद पर इस नियम से मुक्त है तो जनसेवक यानि चुने हुए प्रतिनिधि को इससे वंचित क्यों रखा जाये। सरकार अब इस अयोग्यता को हटाने पर विचार कर रही है, ताकि आने वाले निकाय और पंचायत चुनावों में दो से अधिक संतान वाले लोग भी प्रत्याशी बन सकें। इस प्रस्ताव के पीछे दो दृष्टिकोण टकराते दिखाई देते हैं। एक ओर जनसंख्या नियंत्रण की नीति और दूसरी ओर लोकतांत्रिक अधिकारों का विस्तार। समर्थकों का तर्क है कि यह प्रावधान आज अप्रासंगिक हो चुका है क्योंकि राजस्थान सहित कई राज्यों में कुल प्रजनन दर (TFR) पहले से ही गिर चुकी है। भारत की जनसंख्या वृद्धि दर अब स्थिरता की ओर बढ़ रही है। ऐसे में चुनावी पात्रता को संतान संख्या से जोड़ना अव्यावहारिक लगता है। अन्य राज्यों के अनुभव भी इस तर्क को बल देते हैं। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश ने 2024 में 30 साल पुराना दो-बच्चे नियम खत्म कर दिया। वहाँ की विधानसभा ने सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया कि जब राज्य की TFR 1.7 तक गिर चुकी है, तब इस तरह की पाबंदी न केवल अप्रासंगिक बल्कि लोकतांत्रिक रूप से बाधक है। सरकार ने माना कि इससे पिछड़े वर्गों और महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी सीमित हो रही थी। इसी तरह तेलंगाना सरकार भी आगामी पंचायत चुनावों से पहले यह नियम हटाने की तैयारी में है, ताकि अधिक लोगों को चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर मिल सके। दूसरी ओर, गुजरात, महाराष्ट्र, ओडिशा जैसे राज्यों में यह प्रावधान अभी भी विभिन्न रूपों में मौजूद है—कहीं चुनावी अयोग्यता के रूप में, तो कहीं सरकारी नौकरी या लाभों से वंचित करने के रूप में। कुछ अध्ययनों ने यह भी संकेत दिया है कि ऐसे प्रतिबंध कभी-कभी सामाजिक विकृतियों को जन्म देते हैं—जैसे लिंग-चयनात्मक गर्भपात या परिवार नियोजन के नाम पर महिला-अधिकारों का हनन। राजस्थान में प्रस्तावित बदलाव का सबसे बड़ा प्रभाव स्थानीय राजनीति पर पड़ेगा। अब तक कई सक्षम और लोकप्रिय व्यक्ति दो से अधिक बच्चों के कारण चुनाव लड़ने से वंचित रहे हैं। नियम हटने पर वे फिर सक्रिय हो सकते हैं। इससे जनप्रतिनिधित्व का दायरा बढ़ेगा और विविधता में वृद्धि होगी। परंतु इसके साथ कुछ महत्वपूर्ण सवाल भी उठते हैं । 
* क्या इससे जनसंख्या नियंत्रण नीति कमजोर पड़ेगी। 
* क्या सरकार इसके समानांतर कोई नया प्रोत्साहन-मॉडल लाएगी ताकि परिवार-नियोजन की दिशा बनी रहे।
नीति-विशेषज्ञ मानते हैं कि अब समय आ गया है, जब राज्यों को इस विषय पर एकीकृत दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। यदि जनसंख्या स्थिर है तो ऐसी अयोग्यताएँ केवल प्रतीकात्मक रह जाती हैं और लोकतंत्र के समावेशी स्वरूप के आड़े आती हैं। साथ ही यह भी आवश्यक है कि ऐसे किसी भी परिवर्तन से पहले विस्तृत सामाजिक अध्ययन किया जाए। यह देखा जाए कि किन समुदायों पर इसका सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है और क्या यह बदलाव जनहित में संतुलित है। सारांशतः दो से अधिक बच्चे वाला प्रावधान अब सामाजिक-वास्तविकता से मेल नहीं खाता। देश के कई हिस्सों में जनसंख्या घट रही है, जबकि लोकतंत्र की जरूरत अधिक से अधिक लोगों को निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में शामिल करना है। राजस्थान सरकार यदि इस दिशा में आगे बढ़ती है, तो यह निर्णय एक ओर लोकतंत्र का विस्तार होगा, तो दूसरी ओर जनसंख्या-नियंत्रण नीतियों को नए सिरे से परिभाषित करने का अवसर भी देगा। अंततः, सवाल यह नहीं कि किसी के कितने बच्चे हैं बल्कि यह कि क्या वह व्यक्ति जनहित, पारदर्शिता और जिम्मेदारी के साथ शासन में भागीदारी निभा सकता है या नहीं। अगर लोकतंत्र लोक से चलता है, तो उस लोक के किसी हिस्से को बाहर रखना अब तर्कसंगत नहीं लगता।
