समाज को जाति पर आधारित बांटने पर लगे बंदिश

AYUSH ANTIMA
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भारतीय समाज में जाति पर आधारित विद्वेष की भावना को खत्म करना ही नहीं बल्कि विभेद को भी खत्म करने की दिशा में प्रयास होने चाहिए। इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस दिशा में एक फैसले के बाद यूपी सरकार ने जाति पर आधारित रैलियों व सार्वजनिक प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगाकर सराहनीय काम किया है। देखा जाए तो आज के परिप्रेक्ष्य मे जाति पर आधारित संगठनों व रैलियों की बाढ आ गई है। हर जाति के अनगिनत संगठन बनने के साथ ही रोज एक संगठन का उदय होता है। जातीय संगठन जब अपने प्रदर्शन को लेकर सड़कों पर उतरते हैं तो उनमें घुसे कुछ असामाजिक तत्व सार्वजनिक व राष्ट्रीय संपति को अपने निशाने पर लेते हैं। इसके साथ ही इन जाति पर आधारित रैलियों मे अन्य जातियों के खिलाफ जहर उगला जाता है व अन्य जातियों को नीचा दिखाने की परम्परा बन गई है तत्पश्चात सोशल मिडिया पर जातिगत अभद्र व्यवहार को लेकर कसर पूरी की जाती है, जिस कारण परस्पर भेद की खाई बढ़ती जाती है। अपने वाहनों पर भी जातियों को महिमा मंडित करने के बैनर और स्टीकर देखे गये है। अपराध की दुनिया के लोग अपनी जाति के आधार पर पहचान बनाने के साथ ही मजबूत हो जाते हैं। अपराध की दुनिया के काले कारनामे इसकी आड़ में सफेद करने की जुगत करते दिखलाई देते हैं। जातियों की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करने में माहिर यह अपराधिक प्रवृत्ति के लोग अपनी जाति को धोखा देकर दूर हो जाते हैं। आम लोगों में यह भ्रान्ति फैलाई जाती है कि जो सरकारी व प्रशासनिक पदों पर बैठे जाति के लोग निश्चित रूप से सहायता करेंगे, जिसके चलते लोगों का ग़लत कामों की तरफ रूख हो गया है। यदि किसी जाति की प्रतिभा का उच्च पदों पर मनोनयन हो जाता है तो सोशल मीडिया पर जाति व समाज को गोरवान्वित करने वाले काम की पोस्टों की बाढ आ जाती है जबकि यह नहीं देखते कि किन आर्थिक परिस्थितियों को झेलते हुए यह मुकाम हासिल किया है। चुनावी माहौल में टिकट की चाहत मे जाति व समाज को सीढ़ी की तरह काम में लेते हैं। यहां तक यह भी प्रचारित किया जाता है कि यह लोकसभा या विधानसभा एक जाति विशेष बाहुल्य क्षेत्र है। इसके साथ ही चुनावो के समय जाति पर आधारित संगठनों के बैनऱो की बाढ आ जाती है। इन सब परिस्थितियों से उपर उठकर व जातिगत भावना से उपर उठकर हमें सबका साथ सबका विकास एक नारा ही नहीं बल्कि यथार्थ के धरातल पर भी इसे सार्थक करना होगा। हमारे सभ्य समाज की यह मंशा रही है कि हर नागरिक को अपने समाज की ताकत बनकर आगे बढ़ना चाहिए। सभी समाजों में यह भी यह भी एक बीमारी देखी गई है कि जब कोई व्यक्ति किसी सरकारी या सार्वजनिक उपक्रम में उच्च पद पर आसीन रहता है तो वह समाज के व्यक्ति को अपने पास ही नहीं फटकने देता है पर ज्यों ही वह सेवानिवृत्त हो जाता है तो समाज के विकास को लेकर जज्बा हिलौरें मारने लगता है और नये संगठन का निर्माण कर स्वयंभू प्रधान बन बैठता है और वही से समाज के कथित विकास की गंगा बहानी शुरु कर देते है। एक दो आयोजन समाज के कंधों पर बैठकर धन बल से सफल बनाने के साथ ही अपना स्वार्थ सिद्ध कर समाज को दूध में मक्खी की तरह बाहर निकाल कर फेंक देते हैं। हमारे सामाजिक ताने-बाने में हर समाज और जाति श्रेष्ठ है, इसी सोच के साथ आगे बढ़ना चाहिए, जिससे हर समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति का दुख भी समझा जा सके। इसके साथ ही जाति पर आधारित लगाव व राजनिति का दिखावा खत्म करना होगा। किसी भी अन्याय करने वाले व्यक्ति के खिलाफ बिना जाति व समाज देखे खड़ा होना होगा।

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