बिहार की राजनीति इन दिनों फिर उसी मोड़ पर खड़ी है, जहाँ से हर बार नया समीकरण निकलता है। इस बार अंतर इतना है कि नीतीश कुमार अड़े हुए हैं—अपने सम्मान, अपनी शर्तों और अपने हिस्से की सीटों पर। दूसरी ओर, नरेंद्र मोदी और अमित शाह चाहते हैं कि एनडीए एकजुट दिखे, मगर नेतृत्व की डोर उनके हाथ में रहे। यह रस्साकशी सियासी शतरंज का सबसे दिलचस्प दौर बन गई है। एनडीए में सीटों का गणित भले तय दिखे, बीजेपी और जेडीयू 101–101, बाक़ी हिस्से छोटे सहयोगियों के लिए पर यह समानता केवल अंकगणितीय है, राजनीतिक नहीं। जेडीयू यह संदेश देना चाहती है कि बराबरी का मतलब बराबर सम्मान भी हो, जबकि बीजेपी यह चाहती है कि बराबरी में नेतृत्व उसका ही रहेगा। यही कारण है कि नीतीश कुमार की भाषा में अब एक तरह का संकल्प झलक रहा है और यही अड़न एनडीए की सबसे बड़ी परीक्षा बन गई है। मोदी की रणनीति इस स्थिति में टकराव नहीं, संतुलन की है। वे नीतीश की शर्तों को नकारेंगे नहीं लेकिन उन्हें स्वीकार भी पूरी तरह नहीं करेंगे। चुनाव प्रचार में वे डबल इंजन सरकार का नारा दोहराएँगे, ताकि चेहरों की बहस को पीछे धकेल सकें। यानि जनता के सामने विकास और स्थिरता का सवाल हो, न कि कौन मुख्यमंत्री बनेगा का। इसीलिए मंच पर तीन चेहरे होंगे, मोदी का करिश्मा, नीतीश का अनुभव और स्थानीय नेतृत्व की मेहनत। यह तिकड़ी एनडीए को एकता का चेहरा देगी, भले भीतर खटास बनी रहे।
दूसरी ओर महागठबंधन ने तेजस्वी यादव को पहले ही मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके माहौल अपने पक्ष में किया है। वे बेरोज़गारी, पलायन और युवाओं की उम्मीदों पर बोल रहे हैं। यह एनडीए के लिए चुनौती है, क्योंकि नीतीश के लंबे शासनकाल के बाद "थकान" का भाव जनता में दिखता है। बीजेपी इस थकान को जंगलराज की याद में बदलना चाहती है। उसका अभियान इस बात पर केंद्रित होगा कि अगर तेजस्वी आए, तो बिहार फिर वैसा ही होगा, जैसा दो दशक पहले था। मोदी जानते हैं कि बिहार में सत्ता की कुंजी जातीय समीकरणों और स्थानीय नेटवर्क में छिपी है। इसलिए वे लाभार्थी वर्ग—महिलाओं, पिछड़ों, गरीबों और प्रधानमंत्री आवास–उज्ज्वला योजनाओं के लाभार्थियों को फिर सक्रिय करेंगे। यह वही सामाजिक आधार है, जिसने उत्तर प्रदेश में योगी सरकार को स्थायित्व दिया। मोदी का इरादा है कि नीतीश की अड़न को सम्मान देकर वे उसे एनडीए की एकता की मिसाल बना दें लेकिन यह रास्ता आसान नहीं है। चिराग पासवान जैसे सहयोगी दलों के साथ समीकरण अभी भी नाज़ुक हैं। नीतीश को उनसे पुरानी शिकायतें हैं। अगर इन दरारों को मोदी पाटने में सफल होते हैं, तो एनडीए की स्थिति मजबूत होगी; अगर नहीं, तो यही दरार विपक्ष की जीत का रास्ता बनेगी। आख़िरकार, यह चुनाव केवल सीटों का नहीं, नेतृत्व की परिभाषा का भी है। मोदी यह दिखाना चाहते हैं कि वे राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, प्रांतीय गठबंधन राजनीति में भी नियंत्रण रखते हैं और नीतीश यह साबित करना चाहते हैं कि वे अब भी बिहार की कुंजी हैं, कोई भी सरकार उनके बिना संभव नहीं। इसलिए यह कहना ग़लत न होगा कि बिहार में लड़ाई दो दलों की नहीं, दो स्वभावों की है। एक ओर मोदी का आत्मविश्वास, दूसरी ओर नीतीश का आत्मसम्मान। चुनाव बताएगा कि संतुलन की यह रस्सी किसके हाथ में मज़बूत रहती है। सत्ता के शिल्पकार के हाथ में या अनुभव के पुरोधा के हाथ में।