फिर टले निकाय और पंचायतीराज चुनाव: लोकतंत्र की मजबूरी या सत्ता की रणनीति

AYUSH ANTIMA
By -
0


जयपुर (रुक्मा पुत्र ऋषि): प्रदेश में स्थानीय निकायों और पंचायतीराज संस्थाओं के चुनाव एक बार फिर टल गए हैं। मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने साफ किया है कि पिछली SIR (Special Intensive Revision) के आधार पर नाम तो मान्य होंगे, पर इस बार दस्तावेजी प्रक्रिया सरल रखी जाएगी लेकिन इससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अब यह चुनाव फरवरी 2026 से पहले संभव नहीं दिख रहे। यानि राज्य की नगर पालिकाएँ, नगर निगम और ग्राम-पंचायतें कुछ समय तक निर्वाचित प्रतिनिधियों के बिना ही प्रशासकीय नियंत्रण में रहेंगी। यह टलना केवल एक प्रशासनिक कदम नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक दृष्टि से गहरी चिंता का विषय है। चुनाव टलने की आधिकारिक वजह बताई जा रही है--मतदाता सूची का गहन पुनरीक्षण, वार्ड परिसीमन और आरक्षण निर्धारण की प्रक्रिया। राज्य चुनाव आयोग का कहना है कि बिना अद्यतन मतदाता सूची के निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं। कई जगह मृत मतदाताओं के नाम हटाने, स्थानांतरित मतदाताओं का पता लगाने और नए मतदाताओं को जोड़ने की ज़रूरत है। यह तकनीकी कार्य समय मांगता है। आयोग ने तर्क दिया कि यदि यह प्रक्रिया अधूरी रह जाए, तो चुनाव की वैधता पर ही प्रश्न उठेंगे पर दूसरी ओर, विपक्ष इसे केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि राजनीतिक स्थगन मानता है। कांग्रेस ने खुलकर आरोप लगाया है कि भाजपा सरकार लोकतांत्रिक संस्थाओं को प्रशासक-राज में बदल रही है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा ने कहा, यह संवैधानिक प्रावधानों पर हमला है। सरकार चुनाव टालकर स्थानीय स्तर पर जवाबदेही खत्म कर रही है। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी कहा कि पंचायतों और निकायों में प्रशासक बैठाना अनुच्छेद 243-E और 243-U का उल्लंघन है, जो पाँच साल के भीतर चुनाव कराने का दायित्व देता है। कांग्रेस का यह भी कहना है कि यह देरी केवल तकनीकी नहीं, बल्कि रणनीतिक है ताकि सत्तारूढ़ दल परिसीमन और मतदाता सूची के माध्यम से अपने लिए अनुकूल माहौल तैयार कर सके। वहीं कांग्रेस ने इस खाली समय को संगठन विस्तार और युवाओं को मौका देने के अभियान के रूप में लिया है। पार्टी ने घोषणा की है कि आने वाले स्थानीय चुनावों में 50 प्रतिशत टिकट युवाओं को दिए जाएंगे। सरकार और भाजपा पक्ष अपने बचाव में यह तर्क दे रहे हैं कि यह देरी जनहित में है। मतदाता सूची का गहन पुनरीक्षण, वार्ड सीमाओं का सही निर्धारण और आरक्षण की समीक्षा चुनाव की शुद्धता के लिए आवश्यक है। उनके अनुसार, जल्दबाज़ी में चुनाव कराने से विवाद और न्यायिक दिक्कतें बढ़ेंगी। बेहतर है थोड़ी देरी हो जाए, पर प्रक्रिया निर्दोष हो, यही उनका तर्क है। फिर भी, संवैधानिक दृष्टि से यह प्रश्न बना हुआ है कि क्या यह देरी उचित सीमा में है। उच्च न्यायालय ने पहले भी टिप्पणी की थी कि निकायों और पंचायतों में लंबे समय तक प्रशासक बैठाना लोकतांत्रिक भावना के विपरीत है। अनुच्छेद 243-E और 243-U यह स्पष्ट करते हैं कि स्थानीय निकायों का कार्यकाल पाँच वर्ष से अधिक नहीं होना चाहिए, और समाप्ति से पहले नए चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए। राजनीतिक रूप से देखें तो यह स्थिति दोनों पक्षों के लिए अवसर और चुनौती दोनों है। कांग्रेस इसे जनतंत्र के अपमान के रूप में भुना रही है, जबकि भाजपा सरकार इसे तैयारी और पारदर्शिता का समय बता रही है लेकिन जनता के लिए यह एक अनिश्चित दौर है—स्थानीय स्तर पर निर्णय-सत्ता नौकरशाही के हाथ में चली गई है। विकास कार्यों की जवाबदेही कम हुई है, और जनप्रतिनिधियों का संवाद समाप्त-सा दिखता है।
राजस्थान का यह प्रसंग देश-भर के लिए भी एक संकेत है कि स्थानीय लोकतंत्र की जड़ें तभी मजबूत होंगी, जब चुनाव नियमित, पारदर्शी और समय-बद्ध हों। मतदाता सूची की शुद्धता जितनी ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है लोकतंत्र की गति बनाए रखना। अगर यह प्रक्रिया सच में सुधार के लिए है, तो उसका स्वागत है; लेकिन अगर यह राजनीतिक सुविधा के लिए है, तो यह लोकतांत्रिक ढांचे की आत्मा पर चोट है। अंततः, राज्य में निकाय और पंचायतीराज चुनावों का टलना केवल तारीखों का बदलाव नहीं, बल्कि लोकतंत्र के चरित्र की परीक्षा है—क्या राज्य प्रशासन इसे पारदर्शी सुधार की तरह निभाएगा या सत्ता-सुविधा की ढाल बना लेगा, यही आने वाले समय में तय करेगा कि यह देरी लोकतंत्र की मजबूती है या उसकी कमजोरी।

Post a Comment

0Comments

Post a Comment (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!