झुन्झुनू में करीब दो महीने से पुलिस कप्तान नहीं था। अब आखिरकार झुंझुनूं के साफो, गुलदस्तों व दुपट्टों का इंतजार खत्म हुआ और जयपुर की मेहरबानी से झुंझुनू को पुलिस का कप्तान मिल ही गया। ज्योंही झुंझुनूं के पुलिस अधीक्षक को लेकर आधिकारिक घोषणा हुई, साफो व गुलदस्तों की बांछे खिल उठी कि आखिर उन्हें भी पुलिस अधीक्षक के नजदीक से देखने का मौका मिलेगा अन्यथा दुकान के शौरूम की ही शोभा बढ़ा रहे थे। विभिन्न राजनीतिक दल, सामाजिक संगठनो के महानुभाव भी इसी का इंतजार कर रहे थे कि जिला कलेक्टर के आने के बाद किसी सरकारी अफसर के सम्मान करने की उनकी दिली ख्वाहिश पूरी होने वाली है। देखा जाए तो अफसरों का सम्मान इसलिए होना चाहिए कि उन्होंने जिले में कुछ नये आयाम स्थापित किये हो। अफसरों के आने जाने की यह परम्परा तो सरकारी नितियों का हिस्सा है। आजकल यह सम्मान भी जाति पर आधारित हो गया है। जिस जाति के अफसर का तबादला होकर आता है तो वह समाज गौरव भी हो जाता है, भले ही उसका सामाजिक सरोकार से दूर का ही नाता न रहा हो। सामाजिक संगठन के मठाधीश शायद इन अलंकरणों से वशीभूत होकर अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए लालायित रहते हैं। राजनीतिक नेताओं का मकसद भी कमोबेश यही रहता है कि उनके निजी हितों के साथ ही उसकी आड़ में उनके समर्थक भी अपने हितों को साधते रहे। पिछले दो महीने से जिले में पुलिस कप्तान का पद खाली होने से जिले की कानून व्यवस्था चरमराई हुई थी क्या राजनीतिक दलों के आकाओं ने इसको लेकर जयपुर दरबार में गुहार लगाई। यदि जनहित को सर्वोपरि रखते तो निश्चित रूप से उनके प्रयास इस दिशा मे होने चाहिए थे कि बिना कप्तान उनका जिला लावारिस क्यों है। यह साफा, दुपट्टा, माला, हार संस्कृति ने शायद जिले को कहीं न कहीं नुकसान ही पहुंचाने मे महती भूमिका अदा की है।
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