पीव धरि आवजौ ए, अहो मोहि भावनौ ते॥ टेक ।। मोहन नीकौरी हरि देखेंगी अंखियां भरी। राखौं हौं उर धरी, प्रीति खरी, मोहन मेरो री माई॥ १॥ रहौं हौं चरण धाई, आनन्द बधाई, हरि के गुण गाई। दादू रे चरण गहिये, जाई ने तिहां तौ रहिये। तन मन सुख लहीये, बीनती गहीये॥ २॥
हे महात्मन् ! प्रियतम प्रभु का मेरे घर में आना मेरे लिये बहुत ही हर्षप्रद है। वह प्रभु मुझे बहुत ही प्रिय लगता है। उसको मैं नेत्र भर कर देखूगी। हे भाई! वह विश्व को मोहित करने वाला प्रभु सुन्दर से भी अति सुन्दर है। वह मोहन मेरा है। उसके साथ मेरा सच्चा स्नेह है। उसको हृदय में ही धारण करूंगी। मैं साधनों के द्वारा उसके चरण कमलों में जाकर वहां ही निवास करूँगी। जब श्री हरि का यश गाउंगी तब मुझे बहुत बहुत आनन्द आयेगा। हे
सखि ! अब तो मैं उसके पास जाकर उसके चरणों का सहारा लूंगी। अवश्य ही वह प्रभु मेरी प्रार्थना को स्वीकार करेंगे, उस समय मैं आनन्द के सागर में डूब जाऊँगी, नहीं तो उनके दर्शनों के बिना मेरे नेत्र व्यर्थ ही है।
भक्तिरसामृतसिन्धु में लिखा है कि-जिसके नाम को सुनकर ही मेरा शरीर तथा रोम रोम नाचने लगते हैं उस मथुरामण्डल को न देखने वाले इन दोनों नेत्रों का होना व्यर्थ ही है।