धार्मिक उपदेश: धर्म कर्म

AYUSH ANTIMA
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अहो नर! नीका है हरि नाम, दूजा नहीं नांउं बिन नीका, कहिले केवल राम॥ टेक। निर्मल सदा एक अविनासी, अजर अकल रस ऐसा। दिढ गहि राखि मूल मन माहीं, निरखि देखि निज कैसा॥१॥ यहु रस मीठा महा अमीरस, अमर अनूपम पीवै। राता रहै प्रेम सौं माता, ऐसें जुग जुग जीवै॥ २॥ दूजा नहीं और को ऐसा, गुरु अंजन कर सूझै। दादू मोटे भाग हमारे दास विवेकी बूझै॥ ३॥
कल्याण को देने वाले साधनों में हरि नाम ही श्रेष्ठ साधन है क्योंकि हरि के नाम में चाण्डाल से लेकर सभी प्राणियों का अधिकार है। अत: ऐसे श्रेष्ठ साधन को त्यागकर दूसरे क्लिष्ट साधनों से क्यों कष्ट पाते हो किन्तु सदा ही राम नाम का चिन्तन करो। यह राम
का नाम ब्रह्म की तरह निर्मल अद्वितीय, अविनाशी, अजर, अमर, अकल, ब्रह्म स्स ही है। अत: उसी राम नाम को जपो। संसार का मूल कारण भी यही है। विचार कर तू अपनी आत्मा को भी देख कि मैं कौन हूँ। नाम चिन्तन एक मधुर रस है, जो इस रस का पान करता है, वह भी
अजर अमर बह्म स्वरूप हो जाता है। राम नाम साधन के तुल्य दूसरा कोई सरल साधन नहीं है परन्तु गुरु की कृपा से ही राम नाम की महिमा को जान सकता है। मैंने भी गुरु की कृपा से ही राम नाम के महत्व को जाना है। अहो मैं कैसा भाग्यशाली हूँ कि जिससे मेरे पर गुरु की कृपा हुई। भगवन्नाम कौमुदी में लिखा है कि- अरी बुद्धिमती रसना ! तू श्रीराम, श्रीराम कह । अरी जिहे! तू बार-बार राम राम रटती रह। हे हरे! अनादि संसार के भीतर अनन्त जन्मों में निरन्तर संचित किये हुए पापों से मेरे हृदय में कालिमा जम गई। यह तो आप के नाम रूपी प्रचण्ड अग्नि
के उदर में तिनके के एक टुकड़े के समान भी नहीं है। उसको जलाना क्या बड़ी बात है ?
हे प्रभो! आपका नाम तो पर्वतों को भी भस्म कर देनेवाले प्रलयकालीन अग्नि के समान है अर्थात् सब पापों का मूलोच्छेदन करने वाला है।

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