अवधू बोल निरंजन वाणी, तहं एकै अनहद जाणी॥ टेक॥
तहं वसुधा का बल नाही, तहं गगन धाम नहिं छांही। तहं चन्द सूर नहिं जाई, तहं काल काया नहिं भाई॥१॥ तहं रैणि दिवस नहिं छाया, तहं तव वरण नहिं माया। तहं उदय असा नहिं होई, तह न जीवै कोई॥ २॥ तहं नांही पाठ पुरानां, तहं अगम निगम नहिं जाना। तहं विद्या वाद न ज्ञानां, नहिं तहां जोग रु ध्यानां ॥ ३॥ तहं निराकार निज ऐसां, जहं जाण्यां जाइ न जैसा। तहं सब गुण रहिता गहिये, तहं दादू अनहद कहिये॥ ४॥ हिन्दी-हे अवधूत सन्त, आप हमें निरंजन निराकार स्वरूप परब्रह्म परमात्मा का ज्ञान कहो क्योंकि अन्तर्मुख वृत्ति करने से उसी का अनुभव होता है। वहां पृथिव्यादि पंचभूतों का कोई बल नहीं है। आकाश धूप और बादल की छाया भी नहीं होती है। वहां पर सूर्य चन्द्र भी नहीं पहुंच सकते। वहां पर शरीर को काल भी नहीं खा सकता और न दिन रात तारे आदि नक्षत्र उदय होते। वहां पर न कोई जीता न कोई मरता। वहां पर न पुराण पढे जाते न वेद शास्त्र जानने में आते। न नाना प्रकार की विद्या ही काम आती और वहां पर न वाद-विवाद चलता और न इन्द्रिय-जन्य ज्ञान या मन के द्वारा जाना जाता। न हठ योग है न मूर्ति आदि की पूजा होती। वहां तो वाणी मन से भी अतीत ब्रह्म है उसी का कथन करो। इस भजन में निषेध मुखेन बह्म का ही प्रतिपादन किया है।
श्वेतज्ञाश्वतरोपनिषद् आदि में ब्रह्म का ऐसा ही वर्णन किया है कि इस परब्रह्म परमात्मा का कोई रूप दृष्टि के सामने नहीं आता, इसको कोई भी आंखों से नहीं देख सकता। साधक जन हृदय में स्थित परमेश्वर को भक्तियुक्त हृदय से निर्मल स्वरूप ब्रह्म को जान लेते हैं, वे अमर हो जाते हैं।