मून येह अचंभौ थाये, कीडीये हस्ती बिडार्यो, तेन्हें बैठी खाये।टेक। जांण हुतौ ते बैठो हारे, अजांण तेन्हें ता वाहे। पांगुलौ उजावा लाग्यो, तेन्हैं कर को साहै ॥१॥ नान्हौं हुतौ ते मोटौ थायो, गगन मंडल नहिं माये। मोटे रो विस्तार भणीजे, तेतौ जाये॥ २॥
ते जाणे जे निरखी जोवै, खोजी नैं वली माहैं। दादू तेन्हों मर्म न जाणे, जे जिभ्या विहूंणौं गाये॥ ३॥ हिन्दी-दुर्वासना से युक्त दूसरों के छिद्रों को ही देखने वाली अन्त:करण की वृत्ति रूपी चींटी जब विवेक वैराग्य आदि साधनों द्वारा निर्दुष्ट होकर आत्मज्ञान द्वारा महान् बलवान् काम शत्रु को मार कर अपने आत्मा में स्थिर होकर कामजन्य विक्षेप को भी इसने नष्ट कर दिया। यह एक महान् आश्चर्य है कि छोटी सी चीटी हाथी को कैसे मार सकती है? परन्तु यह ज्ञान का महात्म्य है कि वह छोटा होता हुआ भी विवेक वैराग्यादि साधनों की सहायता से महान् से महान् शत्रु
को भी नष्ट कर देता है।
वेदान्तसंदर्भ में कहा है कि-जो ज्ञानी पुरुष विवेक रूपी घोड़े पर बैठा है और हाथ में शत्रु को मारने के लिये तलवार धारण कर रखी है तथा अपनी सुरक्षा के लिये सारे शरीर पर कवच धारण कर रखा है, उसको भला कौन शत्रु मार सकता है ? उसके साथ लड़ने वाला प्रतियोगी योद्धा है ही नहीं। इसीलिये सन्तों ने तीव्र विवेक और वैराग्य को ही मुक्ति का कारण बतलाया है। अत: मुमुक्षु को सबसे पहले प्रयत्नपूर्वक विवेक वैराग्य को धारण करना चाहिये। अत: जो ज्ञानी है वे तो संसार में रहते हुए अपने विवेक विचार द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करके विक्षेप से रहित आत्मा में स्थित रहते हैं। परन्तु अज्ञानी तो उत्तरोत्तर संसारिक वासना के कारण बार बार इस संसार में पडते रहते हैं।
वेदान्तसंदर्भ में कहा है कि-
जब तक साधक को निर्वेद पैदा नहीं होता तब तक वह देह बन्धन को नष्ट नहीं कर सकता क्योंकि देह का बन्धन महान् है। बिना निवेद के नष्ट नहीं हो सकता, जो वैराग्य रहित प्राणी है, वे यमलोक की तरह इस शरीर में रहते हुए त्रिविध तापों से क्लेश पाते रहते हैं। चाहे वे पंडित ही क्यों न हो क्योंकि वे अपने अज्ञान से मोहित रहते हैं। श्रीदादूजी महाराज कहते हैं कि मेरा मन पहले चंचलता के कारण प्रभु को नहीं भजता था परन्तु अब ज्ञान होने से चंचलता को त्याग कर सतत प्रभु को ही भजता रहता है। क्योंकि ज्ञान से उसकी सब प्रकार की शुद्धि हो गई। अज्ञान दशा में तो भगवान् तुच्छ मालूम पड़ता था। अब तो इतना महान् प्रतीत होता है कि वह महान् आकाश में भी नहीं समाता अर्थात् व्यापक होने से वह बाहर भीतर सर्वत्र दीख रहा है। यह ब्रह्म अति सूक्ष्म है, इसके अन्त का कोई वर्णन नहीं कर सकता। इस जगत् में ऐसा कोई पुरुष पैदा नहीं हुआ कि जो इसको पूर्णतया जान जाय। अत: मेरे विचार से जो इस ब्रह्म को देखने के लिये यत्न करता है, वह उसको जान सकता है। वह प्रभु अपने को खोजने वाले को अपनी आत्मा में लीन कर लेते हैं। वह साधक ध्यानावस्था में उसके गुण गाता रहता है। आदि अन्त से रहित उस पूर्ण ब्रह्म का गुण भी पूरी तरह कोई नहीं गा सकता। क्योंकि गुण गान भी जब ही कर सकता है जब उसको जानता हो। बिना जाने गुण ज्ञान भी कैसे किया जाय।