मन ही मरणा ऊपजै,मन ही मरणा खाइ। मन अविनाशी ह्वै रह्या, साहिब सौं ल्यो लाइ।।
संतशिरोमणि श्रीदादू जी महाराज कहते है कि जैसे स्वप्न में मन अपनी मृत्यु को देखता है जो असम्भव है क्योंकि जागने पर वह स्वप्न का दृश्य अपने आप ही निवृत्त हो जाता है। अतः आत्म दृष्टि से देखने पर संसार असत्य ही दिखलायी पड़ता है।
श्रुति में लिखा है यह सब कुछ परमात्मा ही हैं। जगत रूप में सृष्टि को देखने पर कोई भी सत्य नजर नहीं आता, अतः इस संसार को केवल मन की कल्पना ही माननी चाहिए। विवेक चूड़ामणि में मन के अलावा कोई अविद्या नहीं है। मन ही अविद्या है और मन ही भवबंधन का हेतु है। जब मन रहता है तब सारा संसार बन जाता है, अतः मन कल्पित संसार से जीव मोहित हो रहा है। योगवाशिष्ठ में एक भ्रम से दूसरे भ्रम में जाता हुआ तथा एक सपने से दूसरे स्वप्न की कल्पना करता हुआ यह जीव सबको अति स्थिर मानकर मोहित हो रहा है, इसलिए जब यह मन ईश्वर का चिंतन करता है तब ईश्वर रूप हो जाता है। अतः ज्ञानवान साधक को सदा ही ईश्वर का चिंतन करना चाहिए।