भारत देश विश्व में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। इसका मूल कारण है यहां संस्कार व त्याग को महत्व दिया जाता है लेकिन आधुनिक परिवेश में हमारे सभ्य समाज से संस्कार विलुप्त होते जा रहे हैं। जिसकी परिणति हम समाज में फैली अराजकता, एकाकीपन, वैमनस्य व एक दूसरे को नीचा दिखाने को लेकर देखा जा सकता है। अपने निजी स्वार्थ से वशीभूत होकर मनुष्य आधुनिकता की अंधी दौड़ में आज न तो खुद के लिए और न ही समाज के लिए उचित अनुचित की पहचान कर पाता है। यह संस्कारों का ही नतीजा है कि लोग अपने निजी स्वार्थ के नीचे समाज हित का दफन कर देते हैं। आज ऐसे महानुभाव प्रतिष्ठित और संस्कारवान की श्रेणी में आते हैं, जिनकी समाज के प्रति संकीर्ण मानसिकता होती है। समाज को केवल अपने निजी हित साधने तक ही सिमित रखते हैं। कुछ तो स्वयंभू समाज के ठेकेदार खुद को हर मोर्चे पर महिमा मंडित करते नजर आते हैं। इसके लिए यदि व्यक्ति के जन्म से ही संस्कार के बीज बो दिए जाएं तो हम निश्चित रूप से उस समाज का दर्शन कर सकते है, जिसकी हम कल्पना करते हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर संस्कार आयेंगे कहां से। ऐसे उच्च संस्कार जो व्यक्ति के जीवन को सही दिशा प्रदान पर सके। निश्चित रूप से वह संस्कारों की पाठशाला खुद का घर ही होती है। संस्कार बच्चे के जन्म से ही आते हैं। पौराणिक कथाओं में वर्णन आता है कि स्त्री जब गर्भवती होती है तो घर के बड़े बुजुर्ग धार्मिक किताबें और संस्कारों से ओतप्रोत बातें बताया करते थे, जिससे उसकी होने वाली संतान पर अच्छा प्रभाव पड़ सके व उन संस्कारों व संस्कृति से अवगत हो सके, जिस समाज में उसको जीना है। यदि हम संस्कारों की जननी को मां के रूप में देखे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। एक मां ही है, जो बच्चे का प्रथम गुरू होती है, उसको उचित संस्कार देकर उसका जीवन संवार सकती है। आज हम कितने ही आधुनिक हो जाए पर जीवन को सही दिशा उच्च संस्कारो से ही प्राप्त हो सकती है। जैसे फसल की बुआई का एक उचित समय होता है व उसको पकने का भी उचित वातावरण की जरूरत होती है। यही बात हम संस्कारों के लिए भी मान सकते हैं। इसके लिए नारी जाति को भी यह बात समझनी होगी कि वही एकमात्र माध्यम है, जो बच्चे को संस्कारित करके परिवार व समाज का कल्याण कर सकती है। उच्च संस्कार उसी तरह जीवन पर प्रभाव डालेंगे, जिस प्रकार चंदन का तिलक करने पर व्यक्ति के ललाट की शोभा तो बढ़ ही जाती है, साथ ही लगाने वाले के हाथों से भी चंदन की महक आने लग जाती है। संस्कारवान मनुष्य समाज में आदर व सम्मान का पात्र होता है, वहीं संस्कार विहीन व्यक्ति न तो स्वयं और न ही समाज का कल्याण कर सकता है। मनुष्य शोभनीय तभी होता है जब वह संस्कारित हो। संस्कारों को लेकर यही कहा जा सकता है कि संस्कार और समाज एक दूसरे के पूरक होते हैं लेकिन इस आर्थिक युग में अर्थ को महत्व दिया जाने लगा। अर्थ के बोझ तले दबकर संस्कार दम तोड़ते नजर आ रहे हैं। समाज की बागडोर भी उन्हीं के हाथों में आ गई, भले ही उसका अर्थ को लेकर दिखावा हो। सभ्य समाज की परिकल्पना को लेकर हमें यह सोच के साथ आगे बढ़ना होगा कि हम समाज को क्या दे रहे हैं न कि समाज हमें क्या दे रहा है ।
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