इहि कलि हम मरणें कू आये, मरण मीत उन संगि पठाये।।
जब तें यहु हम मरण विचारा, तब थें आगम पंथ संवारा॥ मरण देखि हम गर्ब न कीन्हा, मरण पठाये सो हम लीन्हा॥ मरणा मीठा लागै मोहि, इहि मरणें मीठा सुख होहि॥ मरणें पहली मरै जे कोई, दादू सो अजरावर होई॥
संतशिरोमणि श्री दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि इस संसार में जो पैदा होता है, वह मरने के लिये ही पैदा होता है क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि जो जन्मता है, वह मरता है हमारी मृत्यु तो जन्म के साथ ही पैदा हो जाती है। अत: सभी प्राणी अपनी मृत्यु को साथ ही लेकर आता है। ऐसी विचारधारा जब मानव के अन्त:करण में पैदा होने लगती है तब वह प्रभु प्राप्ति के मार्ग में चलने लगता है। नहीं तो वह प्रमाद करता रहता है, इसलिये मृत्यु का सदा विचार करते रहो। मैं कभी नहीं मरुंगा, ऐसा अहंकार मेरे मन में कभी नहीं आता प्रत्युत जिस प्रभु ने मेरे को मृत्यु के लिये भेजा है, मैं उसी प्रभु को बार बार याद करता हूं। मुझे मृत्यु बड़ी प्यारी लगती है, जिसने मुझे प्राण त्यागने से पहले ही जीवन्मुक्त स्थिति में पहुंचा दिया। जीते हुए मरना बहुत अच्छा है क्योंकि जो जीता हुआ ही मर जाता है, वह जीवन्मुक्त होकर ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। योगवासिष्ठ में लिखा है कि- हे राम ! सुन्दर स्त्री आदि तथा धन के नष्ट होने पर शोक का कौन सा अवसर है। इन्द्रजाल की दृष्टि से देखे गये पदार्थ के नष्ट होने पर क्या कोई विलाप करता है। अविद्या के अंश भूत पुत्र आदि के प्राप्त होने पर सुख तथा नष्ट होने पर दुःख का होना क्या कभी उचित है। रमणीय धन स्त्री आदि की प्राप्ति एवं वृद्धि होने पर हर्ष से फूल उठने का कया अवसर है। क्या मृगतृष्णिका जल की वृद्धि होने पर जलार्थी पुरुष को आनन्द प्राप्त होता है। कदापि नहीं, धन और स्त्री आदि के बढ़ने पर उन्हें परमार्थ में बाधक समझकर दुःख का अनुभव करना चाहिये। संतोष मानना तो कभी उचित नहीं। संसार में मोह माया की वृद्धि होने पर भला कौन सुखी और स्वस्थ रह सकता है। जिन भोगों के बढने से मूढ मनुष्य को राग होता है उन्हीं की वृद्धि से विवेकशील मनुष्य के मन में वैराग्य पैदा होता है। नश्वर धन और स्त्री आदि के सुलभ होने में हर्ष का क्या कारण है, जो इनके परिणाम को देख पाते हैं उन साधु पुरुषों को तो इन से वैराग्य ही होता है। जो नित्य तृप्त शुद्ध एवं तीक्ष्ण वुद्धि वाले जीवन्मुक्त महात्मा है उन्हीं के आचरणों का अनुसरण करना चाहिये भोग लम्पट दीन हीन शठों के आचरणों का नहीं। पारावार को जानने वाले महात्मा जगत् के व्यवहार को न त्यागते न उसकी इच्छा करते किन्तु अनासक्त भाव से सब कुछ व्यवहार करते रहते हैं। अत: अपनी मृत्यु का विचार अवश्य रखना चाहिये।