दादू काढे काल मुख, गूंगे लिये बुलाइ। दादू ऐसा गुरु मिल्या, सुख में रहे समाइ।। संतशिरोमणि महर्षि श्रीदादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि लोभ काल का ही रूप है, लोभ किसी का भी पूरा नहीं होता। ज्यों-ज्यों लाभ होता है त्यों-त्यों लोभ दुगुना बढ़ता जाता है। लोभी को कहीं शांति नहीं मिलती। अतः लोभ सर्वविध अनर्थों का मूल एवं दुःखप्रद जानकर संतोषधारण कर उसको त्याग देना चाहिए क्योंकि लोभी मनुष्य गूंगा-बहरा (बधिर) हो जाता है। उसे सत्य असत्य में अंतर नहीं दिखलाई पड़ता, स्वार्थवश अनर्थकारी कृत्य करने से भी नही डरता और पापमय दुर्गुण कर्मो का भागीदार बनता रहता है। अतः सद्गुरु ही लोभ के दोषों को ज्ञान उपदेश द्वारा बताकर, संतोषवृति से रहना सीखा कर शिष्य को लोभ के जंजाल से निकाल कर परम सुखी बना देते हैं। महाभारत में कामनाओं को भोगने से उनके भोग की इच्छा किसी की भी निवृत्त नहीं होती है, किंतु जैसे अग्नि में घी की आहुति देने से अग्नि ज्यादा बढ़ती है। वैसे ही लोगों की आशा भी बढ़ती है, शांत नहीं होती है। अतः सब कामनाओं को प्राप्त करने की अपेक्षा उनका त्याग ही हितकारी माना गया है। योगवासिष्ठ में हे प्रिय ! लोभ दुःखो का समुंद्र है। यह संसार स्वप्न तुल्य हैं और रागद्वेष से भरा पड़ा है। केवल स्वप्न काल में ही सत्य भास रहा है। जागने पर (ज्ञान होने पर तो असत्य ही प्रतीत होता है।) इस शरीर का विनाश नजदीक ही है। संपत्तियां आपत्तियों का घर है। परस्पर मिलन भी सदा रहने वाला नहीं है क्योंकि जो पैदा होता है वह अवश्य नष्ट होता है।
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