डरिये रे डरिये, तातैं राम नाम चित धरिये॥ जिन ये पँच पसारे रे, मारे रे ते मारे रे॥१॥ जिन ये पँच समेटे रे, भेटे रे ते भेटे रे॥२॥कच्छप ज्यों कर लीये रे, जीये रे ते जीये रे॥३॥ भृंगी कीट समाना रे, ध्याना रे यहु ध्याना रे॥४॥ अजा सिंह ज्यों रहिये रे, दादू दर्शन लहिये रे॥५॥ परमेश्वर और काल से सदा डरते हुए राम नाम का चिन्तन करना चाहिये क्योंकि भगवान् राम नाम चिन्तन से ही प्रसन्न होते हैं। जो अपनी पांचों इन्द्रियों को शब्दस्पर्शादि विषयों में ही लगाते रहते हैं, वे बार-बार मरते जन्मते रहते हैं और जिन्होंने विषयों और इन्द्रियों को जीत लिया वे प्रभु को प्राप्त करके प्रभुरूप होकर युगों युगों जीते रहते हैं। जैसे कछुवा जनता के भय से पाने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही ज्ञान निष्ठ पुरुष भी अपनी इन्द्रियों का विषय से हटाकर ब्रहमस्वरूप हो जाता हैं। जैसे कीटा भृंगी का ध्यान भय से करता हुआ भृंगी रूप हो जाता है, वैसे ही भगवान् का ध्यान करके भक्त भी भगवद्रूप हो जाता हैं। इसी को वास्तविक ध्यान कहते हैं। जैसे दो सिंहों के बीच में खड़ी बकरी तृण को खाती हुई भी सिंहों के भय से स्थूल नहीं होती, ऐसे ही काल और ईश्वर से भयभीत ईश्वर को भजता है, वह विषयों में आसक्त न होकर भगवान् के भजन से भगवद्रूप हो जाता हैं। गीता में कहा हैं कि – जैसे कछुवा सब और से अपने अंगों को भय से समेट लेता हैं। वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों को उनके विषयों से हटा लेता है तब उनकी बुद्धि स्थित हो जाती हैं। कठोपनिषद् में – जो सदा विवेकहीन बुद्धिवाला तथा चंचल मन से युक्त रहता हैं। उसकी इन्द्रियें असावधान सारथी के दुष्ट घोड़ों की तरह वश में न रहने वाली हो जाती हैं परन्तु जो सदा विवेकयुक्त बुद्धिवाला वश में किये हुए मन से संपन्न रहता है। उसकी इन्द्रियां सावधान सारथी के घोड़ों की तरह वश में रहती है।
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