*सगे हमारे साध हे, सिर पर सिरजनहार, दादू सतगुरु सो सगा, दूजा धन्ध बिकार।*
संतप्रवर श्रीदादूदायलजी महाराज कहते है क़ि सुख में सब संगी होते हैं दुख पड़ने पर कोई संगी नहीं होता। केवल परमात्मा ही दुख अवस्था में प्राणी का सहयोगी होकर सहायता करता है। परमात्मा ही सच्चा सङ्गी है, फिर सतगुरु ही वास्तविक संगी है। तुम सत्य उपदेश के द्वारा पाप से हटाकर धर्म में लग लगाते हैं, इसलिए सबका संग त्यागकर परमेश्वर का ही चिंतन करना चाहिए। महात्मा कविवर संत श्री सुंदर दास जी महाराज कहते हैं गुरुदेव ही ऐसे कृपालु है, जो भवसागर में डूबते हुए प्राणी को धैर्य बनाने में समर्थ है तथा वे उसको वहां से उसी तरह पार पहुंचा देते जैसे कोई नाविक किसी नौका को पार लगा दिया करता है। वैसे परोपकारी है कि अर्थी जनों के सभी कार्य निस्वार्थ पूर्ण करते रहते हैं, उनके गुणों का पूर्ण ज्ञान किसी को भी नहीं हो पाता। उपनिषद में लिखा है कोई भी किसी दूसरे के लिए उस से प्रेम नहीं कर, किंतु अपने ही स्वार्थ के लिए सब प्रेम करते हैं। अतः आत्मा में स्थिर परमात्मा ही सबका प्रिय है, उसी का श्रवण मनन और ध्यान करके उसको पहचानना चाहिए ।