काइमां कीर्ति करूंली रे, तूँ मोटो दातार। सब तैं सिरजीला साहिबजी, तूँ मोटो कर्तार॥ चौदह भुवन भानै घड़ै, घड़त न लागै बार। थापै उथपै तूँ धणी, धनि धनि सिरजनहार॥१॥ धरती अंबर तैं धर्या, पाणी पवन अपार। चंद सूर दीपक रच्या, रैणि दिवस विस्तार॥२॥ ब्रह्मा शंकर तैं किया, विष्णु दिया अवतार। सुर नर साधू सिरजिया, कर ले जीव विचार॥३॥ आप निरंजन ह्वै रह्या, काइमां कौतिकहार। दादू निर्गुण गुण कहै, जाऊँली हौं बलिहार॥४॥
हे परमेश्वर ! मैं आपका क्या यशोगान करूं ? आप तो महान् दाता हैं तो भक्तों को अपने आप को भी प्रदान कर देते हैं। यह संसार आप का ही बनाया हुआ है। अतः आपको ही संसार कर्तृत्व शोभा देता है। आप इस सृष्टि को संकल्प मात्र से रच देते हैं। क्षण में ही नष्ट कर देते हैं और दुबारा बनाने में आपको कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता क्योंकि आप तो संकल्प से ही सृष्टि को बना देते हैं, ऐसा श्रुति कहती है। आप ही सबको धारण करने वाले तथा नष्ट करने वाले हैं। हे सृष्टि को बनाने वाले परमेश्वर ! आपको धन्यवाद है, जो ऐसा कार्य करते हैं। पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज आदि तत्त्वों को आपने ही रचा है, जिन का कोई आदि अन्त ही नहीं दिखता। आपने ही सूर्य-चन्द्रमा, रात-दिन, ब्रह्मा, विष्णु, शिव इनको रचा है। संसार की रक्षा के लिये विष्णु रूप से अवतार लेते हैं। देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी की सृष्टि भी आपकी ही बनाई हुई है। हे जीवात्मन् ! प्रभु के गुणों का विचार करके उसीकी भक्ति करके उसको प्राप्त कर। जो परमात्मा अपनी सत्ता मात्र से संसार की रचना रूप खेल खेलता हैं, स्वयं माया रहित, निर्गुण, सगुण होकर अव्यक्त, अचल रहता है। तैत्तरीय में लिखा है कि –जिससे यह सारे भूत पैदा होते हैं, पैदा होकर जिससे जीते हैं और प्रलय में उसी में लीन होकर रहते हैं, वह ही ब्रह्म कहलाता है। मुण्डक में कहा है कि –उसी परमेश्वर से प्राण, मन, इन्द्रियां, आकाश, वायु, तेज, जल और विश्व को धारण करने वाली पृथ्वी पैदा होती है।