भगवतगीता और प्रेम तत्व

AYUSH ANTIMA
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(आयुष अंतिमा नेटवर्क)

हमारी शाश्वत सनातन संस्कृति के अद्भुत एवं विलक्षण महानायक भगवान श्री कृष्ण हैं। उनका अपने भक्तों के प्रति प्रेम अत्यंत विहवल कर देने वाला और विलक्षण हैं। कृष्ण प्रेमवंश क्या क्या नहीं करते, कृष्ण भक्त प्रेम में अर्जुनके रथ के अश्व हांकना तक भी स्वीकार कर लेते है। वह भी उस समय जब वे द्वारकाधीश थे। भक्त प्रेम में ही अपनी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को तोड़कर वे अपने परम भक्त भीष्मपितामह की प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए शस्त्र उठा लेते है। यह उनके जीवन के उद्घान्त प्रेम के उदाहरण हैं, जहां वे स्वयं ही मान मर्यादा की रक्षा की अपेक्षा अपने भक्तों की रक्षा का दायित्व भक्त प्रेम में सहर्ष उठाते हैं। वे स्पष्ट कहते भी हैं, कि मैं सभी भक्तों के हृदय में सदैव निवास करता हूँ और उनको सदा नित्य निरंतर उपलब्ध हूँ। भगवदगीता का आरंभ और अंत दोनो ही भगवान श्री कृष्ण की पूर्ण शरणागति से होता है, इसका दूसरा नाम प्रेम है। भगवान श्री कृष्ण प्रेम के विवश सब कुछ करते हैं, हर राह हर मार्ग बताते हैं, हर युक्ति प्रस्तावित करते हैं, युद्ध नीति कूटनीति, सैन्य नीति सभी कुछ बताते चलते है और अर्जुन के समक्ष करते जाने के सिवा और कुछ नहीं छोड़ते, वे स्पष्ट कहते हैं अर्जुन तू मेरा सखा है, इसलिए यह सभी श्रेय मैं तुझे दे रहा हूँ अन्यथा तो यह सभी वैसे भी मेरे द्वारा मारे हुए ही है, मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। पर तू मेरा मित्र है इसलिए यह श्रेय तुझे देता हूँ। यह उनके प्रेम का विलक्षण उदाहरण है। गीता ग्रन्थ प्रेम का अगाध ग्रन्थ है, गीता भक्त और भगवान के प्रेम का महासागर है। प्रेम बाहर से नहीं भीतर से किया जाता है, प्रेम भीतर से बाहर की ओर आता है।
गीता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म, देश, समाज अपने कर्म और कर्तव्यों से प्रेम करना चाहिए और मानवता के साथ परमात्मा के आदर्शों और परमात्मा से प्रेम करना चाहिए। गीता के अनुसार वही प्रेम सच्चा है, जो निस्वार्थ भावना के साथ किया जाए। गीता की दिव्यता आस्था की स्वतंत्रता भी है, गीता जीवन में प्रेम का पाठ सिखाती है। प्रेम में ही शांति निहित होती है, प्रेम से ही परमात्मा प्राप्ति के द्वार खुलते हैं। दुर्योधन के जीवन में प्रेम नहीं होने से ही उसने श्री कृष्ण जैसे विराट शक्ति की अपेक्षा उनकी सैना को मांगना उचित समझा। उसके जीवन में मद, मोह, अहंकार, घंमड़, ईर्ष्या, द्वेष, जेसी प्रकृतियों ने घर कर लिया जो अन्ततः उसके विनाश का कारण बनती है और अर्जुन कृष्ण प्रेम में ही सब कुछ पा जाता है। गीता में भगवान प्रत्येक जीव के लिए प्रेम रखते हुए स्वयं ही कह रहे हैः- "ममैवांशों, जीवलोके, जीवभूतः, सनातनः। संसार में प्रत्येक देह में स्थित जीव मेरा ही सनातन अंश है।"
गीता में भगवान कृष्ण कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, अष्टांगयोग और ध्यानयोग की उपयुक्तता प्राणी मात्र के लिए बताते हुए अहंकार में पड़े जीवों की मुक्ति के लिए बड़े प्रेम से सारे मार्गों का वर्णन करते जाते है और अन्त में निश्चित भी करते हैं कि मुझे पाने के लिए नित्य-निरंतर प्रेमा भक्ति का मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ है। वे कहते है, जो नित्य निरंतर मुझको भजता है, उसकी अप्राप्त की उपलब्धता का भार एवं प्राप्त की रक्षा का भार भी ही ले लेता हूँ। यही भगवान का भक्त के लिए प्रेम है, यह भगवान का भक्तों और साधुजनों के लिए प्रेम ही है। वे घोषणा करते है कि जब जब धर्म की हानि होगी तब तब साधुजनों की रक्षा के लिए मैं अवतार लेकर उनकी रक्षा करूंगा। कृष्ण गीता में यहा तक कहते है कि जो भी भक्तजन मुझसे कभी दूर नहीं होना चाहते है, पल पल मेरा साथ चाहते है और प्रेम-प्रीतिपूर्वक मेरी सेवा करते है, उनको मैं ऐसा बुद्वियोग देता हूँ कि वे उसके द्वारा मुझे प्राप्त कर लेते हैं। यह कृष्ण का अपने भक्तों के प्रति विशेष प्रेम का प्रदर्शन है। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के अन्य प्रेम में ही सहसा अपनी सारी विलक्षणताओं और विभूतियों के साथ सभी प्रकार के योगमार्ग और उन्हें पा जाने की युक्तियों का वर्णन करते जाते हैं कृष्ण अर्जुन की जगत में प्रतिष्ठा के लिए मार्ग तैयार करते है, और प्रेम में ही विलक्षण विराट स्वरूप का प्रदर्शन करते है और समस्त सृष्टि को अर्जुन को स्वयं में दिखला कर आप्यायित करते है। इसके पश्चात् अर्जुन के भयमीत होकर स्तुति पर मुनियों और योगियों को भी दुर्लभ अपने चतुर्भुज रूप का दर्शन करवाते हैं। यह उनके अर्जुन के प्रति विशेष अनुराग और साख्य प्रेम का उत्कृष्ठतम उदाहरण है।

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