तूं ही तूं गुरुदेव हमारा, सब कुछ मेरे नांव तुम्हारा॥ तुम ही पूजा तुम ही सेवा, तुम ही पाती तुम ही देवा॥ जोग जज्ञ तूं साधन जापं, तुम ही मेरे आपै आपं॥ तप तीरथ तूं बत सनाना, तुम ही ज्ञाना तुम ही ध्याना॥ वेद भेद तूं पाठ पुराणा, दादू के तुम पिंड पराना॥ अर्थात मैं आप से सत्य ही कहता हूं कि आप ही मेरे गुरुदेव हैं। आपका नाम ही मेरा सर्वस्व है। आपकी पूजा, सेवा, तुलसी पत्र चढाना, ये सब क्रियाएँ गुरुदेव रूप ही हैं। योग, याग आदि साधन तथा जप, तप भी आप स्वयं ही हैं। मेरे लिये तप, तीर्थ, व्रत, स्नान, ध्यान, ज्ञान, वेद का पाठ पढना, पुराणों का श्रवण, ये सब आप ही हैं। अधिक क्या कहूं, मेरे शरीर में प्राण भी आप ही हैं। यह ही अनन्य भक्ति है। राजा सत्यबत ने कहा कि हे प्रभो ! जीवों का आत्म-ज्ञान अनादि, अविद्या से ढक गया है। इसी कारण ये संसार के प्राणी अनेकानेक क्लेशों से पीड़ित हो रहे हैं। जब अनायास ही आपके अनुग्रह से ये आपकी शरण में पहुंच जाते हैं, तब आपको प्राप्त कर लेते हैं। अत: बन्धन से छुड़ाकर मुक्ति देने वाले वास्तविक गुरु आप ही हैं।
जितने भी देवता, गुरु और संसार के दूसरे जीव हैं, वे सब यदि स्वतंत्र रूप से या सब मिलकर भी कृपा करें तो भी आपकी कृपा के दश हजारवें अंश की भी बराबरी नहीं कर सकते। अत: हे प्रभो ! आप ही सर्वशक्तिमान् हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूं। आप सारे लोकों के सुदृढ प्रियतम ईश्वर और आत्मा हैं। गुरु तथा उनके द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान और अभीष्ट की सिद्धि भी आपके ही स्वरूप हैं। फिर भी कामनाओं के बन्धन में जकड़े जाकर लोग अन्धे हो रहे हैं। उन्हें इस बात का पता ही नहीं कि आप उनके हृदय में ही विराजमान हैं। आप देवताओं के भी आराध्यदेव परमपूजनीय परमेश्वर हैं। मैं आप से ज्ञान प्राप्त करने के लिये आपकी शरण में आया हूं। हे भगवन्-आप परमार्थ को प्रकाशित करने वाली अपनी वाणी से मेरे हृदय की ग्रन्थि को काट डालिये और अपने स्वरूप को प्रकाशित कीजिये।