गोविन्द पाया मन भाया, अमर कीये संग लीये। अक्षय अभय दान दीये, छाया नहीं माया॥टेक॥ अगम गगन अगम तूर, अगम चन्द अगम सूर। काल झाल रहे दूर, जीव नहीं काया॥१॥ आदि अंत नहीं कोइ, रात दिवस नहीं होइ। उदय अस्त नहीं दोइ, मन ही मन लाया॥२॥ अमर गुरु अमर ज्ञान, अमर पुरुष अमर ध्यान। अमर ब्रह्म अमर थान, सहज शून्य आया॥३॥ अमर नूर अमर वास, अमर तेज सुख निवास। अमर ज्योति दादू दास, सकल भुवन राया॥४॥ गोविन्द भगवान् को प्राप्त करके मेरा मन बहुत प्रसन्न हो गया अथवा मनोहर भगवान् को मैंने प्राप्त कर लिया और उसको प्राप्त करके उनके साथ अभेद भाव को प्राप्त होकर अमर बन गया। उसी प्रभु ने मुझे अक्षय-आनंद अभय-पद दिया है। वह प्रभु आभास रहित निर्मायिक है और हृदयाकाश तथा अनाहत ध्वनि से भी परे हैं। चंद सूर्य के प्रकाश से भी प्रकाशित नहीं होता, काल के भय से भी भयभीत नहीं होता क्योंकि वह काल का भी महाकाल है। अविद्याप्रयुक्त जीव-भाव से भी रहित है, वह कर्तृत्व, भौक्तृत्व, धर्मों से अतीत माना गया है। स्थूल-सूक्ष्मद्वय शरीर से अतीत तथा आदि अन्त से रहित है और घट-पट की तरह किसी भी ज्ञान का विषय नहीं बनता क्योंकि अवेध्य और नित्य ज्ञान स्वरूप होने से मेरा मन तो उसी ब्रह्म का चिन्तन करते हुए उसी में लीन रहता है। उस ब्रह्म के ज्ञान और ध्यान से जीव अमर हो जाता है। वह देवताओं का भी आश्रय है। वह सर्व विकार शून्य ब्रह्म निर्विकल्प समाधि में सहजावस्था होने पर ज्ञान नेत्रों से साधक को प्राप्त होता है। वह प्रकाश रूप अमर है। उसका ध्यान-ज्ञान भी अमर है और वह सुखनिधान है तथा त्रिभुवन का राजा है। मैं उसका दास हूँ और उन्हीं के स्वरूप में वृत्ति द्वारा लीन रहता हूँ। गीता में कहा है कि –उस स्वयं प्रकाश परमात्मा को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है ।
मुण्डक में –सूर्य, चन्द्र, तारे, विद्युत, अग्नि इनमें से उसे एक भी प्रकाशित नहीं कर सकते, कारण कि उसके प्रकाश से ही सबका प्रकाश होता है और तो क्या, संपूर्ण जगत् भी उसी से प्रकाशित हो रहा है, जो सर्वज्ञ होने से सबको सब और से जानने वाला कहलाता है। इस तरह उसकी जगत् में महिमा है और वह सबका प्रसिद्ध आत्मा परमेश्वर दिव्य आकाश रूप ब्रह्म लोक में स्व-स्वरूप से स्थित है।
उस ब्रह्म में दिन-रात का काल भेद भी नहीं होता अथवा अज्ञान-रूप रात्रि और इन्द्रिय-जन्य ज्ञान भी नहीं रहता क्योंकि वह इन्द्रियातीत है।