*।। मंगलाचरण ।।*
नमो नमो हरि नमो नमो, ताहि गुसांई नमो नमो, अकल निरंजन नमो नमो। सकल बियापी जिहिं जग कीन्हां, नारायण निज नमो नमो॥ जिन सिरजे जल शीश चरण कर, अविगत जीव दियौ।
श्रवण संवारि नैन रसना मुख, ऐसो चित्र कियो॥ आप उपाइ किये जग जीवन, सुर नर शङ्कर साजे। देव दिगम्बर सिध अरु साधक, अपनैं नांइ निवाजे॥
धरती अम्बर चन्द सूर जिन, पाणी पवन किये। भांनण घड़न पलक मैं केते, सकल संवारि लिये॥ आप अखंडित खंडित नाहीं, सब सम पूर रहे। दादू दीन ताहि नइ वन्दित, अगम अगाध कहे॥ हे हरे ! आपको मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ, जो सर्वव्यापक होते हुए संकल्पमात्र से सृष्टि की रचना करते हैं। उस नारायण को नमस्कार करता हूँ, जिसने नख से लेकर शिखा पर्यन्त हाथ पैर मुख आदि अङ्ग-उपाङ्गों के द्वारा इस शरीर को सुन्दर बनाकर वीर्य के बिन्दु मात्र से पैदा कर दिया और स्वयं जीव बनकर इस शरीर में प्रविष्ट हो गया और बिना किसी की सहायता के अकेले ने ही अभिन्न निमित्तोपादान कारण बनकर इस जगत् को बना डाला। ब्रह्मसूत्र के भाष्य में शङ्कराचार्य जी ने लिखा है कि यह जगत् अनेक कर्ता भोक्ताओं से युक्त है तथा जिसमें देश काल निमित क्रिया फल आदि प्रतिनियत हैं, जिसकी रचना मन से भी नहीं जानी जा सकती है, ऐसे अचिन्त्य नामरूपात्मक जगत् की रचना जिस सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् कारण से होती है, उसी को ब्रह्म कहते हैं। जैसे नर शरीर सुन्दर बनाया वैसे ही देवता, पशु, पक्षी, चराचर जगत् तथा पृथ्वी आदि पंचभूत महादेव, देव दिगम्बर, सिद्ध आदि जगत् को भी क्षण मात्र में पैदा कर दिया। अपने भक्तों को भक्ति करने के लिये नाम चिन्तन प्रदान किया। स्वयं सर्वव्यापक अखण्ड रूप से सर्वत्र रहता है। भक्तों के कार्य को सिद्ध करने वाला सब प्राणियों में समरूप से विराजमान है, जिसके क्षणमात्र में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति भङ्ग होते ही रहते हैं। जो अगम अगाध है,जिसको वेद भी नहीं जान सके। उस परब्रह्म परमात्मा को मेरा पुन:पुन: नमस्कार हो।
सर्वोपनिषद्संग्रह में जिसमें यह सारा संसार कल्पित है, जिससे यह पैदा होता है, जो सर्वत्र सर्वरूपमय सर्वदेवमय है, उस सर्वात्मा को मेरा नमस्कार हो, “यतो वा इमानि भूतानि" यह श्रुति भी उसी ब्रह्म में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को कह रही है।