मेरा गुरु ऐसा ज्ञान बतावै, काल न लागै, संसा भागै, ज्यूं है त्यूं समझावै॥ अमर गुरु के आसणि रहिये, परम जोति तहं लहिये।
परम तेज सो डिढ करि गहिये, गहिये लहिये रहिये।। मन पवना गहि आतम खेला, सहज शून्य धर मेला।। अगम अगोचर आप अकेला, अकेला मेला खेला।।
धरती अंबर चंद न सूरा, सकल निरन्तर पूरा। सबद अनाहद बाज हि तूरा, तूरा पूरा सूरा।। अविचल अमर अभै पद दाता, नहां निरंजन राता। ग्यान गुरु ले दादू माता, माता राता दाता॥
संतशिरोमणि श्री दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि मेरा गुरु ऐसा ज्ञान का उपदेश करता है, जिससे तन के सारे संशय नष्ट हो जाते हैं। जीवात्मा काल से मुक्त हो जाता है। गुरु जैसा भगवान् का स्वरूप होता है, वैसा ही उपदेश करते है। अत: ज्ञान के लिये गुरु चरणों में ही रहना चाहिये। उनके चरणों में रहने से ज्ञानस्वरूप गुरु से ब्रह्मज्योति प्राप्त होती है। गुरु के ज्ञान को दृढतया धारण करना चाहिये और उस ज्ञान को धारण करके ब्रह्म को जानना चाहिये। जो मन और प्राणों को रोककर आत्मा का दिन करता है, वह विकारशून्य सहजावस्था को प्राप्त करके प्रभु में मिल जाता है। जो ब्रह्म मन वाणी का अविषय तथा इन्द्रियों से भी परे है, उस ब्रह्म के साथ जो अभेद क्रीडा करते हैं। वे ब्रह्म जान को प्राप्त कर लेते हैं। उसके स्वरूप में पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, सूर्य, चन्द्रमा नहीं है। वह सब शरीरों में पूर्ण हैं। वेदान्तसंदर्भ में कहा है कि- जिसको सूर्य चन्द्रमा विद्युत् भी नहीं प्रकाशित कर सकते तो फिर यह मिततेज वाली अग्नि तो प्रकाशित कर ही नहीं सकती। जिसकी कान्ति से समस्त जगत् भासित हो रहा है, वह आत्मा स्वयं ही सब दिशाओं में स्फुरित हो रहा है। उसका जब साक्षात्कार होता है तो पहले अनाहत नाद सुनाई पडने लगती है। वह साधक शूर और पूर्ण है, जिसने अविचल अमर अभय पद को देने वाले राम को समाधि देश में प्राप्त कर लिया तथा सदा ही समाधि देश में उसके साथ ही रहता है। उसकी भक्ति में अनुरक्त होकर वहीं रहता हैं। ऐसा साधक गुरु ज्ञान प्राप्त करके आनन्द में मग्न रहता है। ऐसा गुरु ही आत्मा का उत्तम से उत्तम ज्ञान का देने वाला होता है।
गुरु गीता में लिखा है कि- हे प्रिये ! मुक्ति की सिद्धि के लिये गुरु की सेवा करनी चाहिये। गुरु के बिना मूढ लोग उस परम पद को नहीं जान सकते हे शिवे ! गुरु देव की कृपा से हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है। सब संशय कट जाते हैं और सब कर्म नष्ट हो जाते हैं।