क्यों विसरै मेरा पीव पियारा,
जीव की जीवन प्राण हमारा॥
क्यों कर जीवै मीन जल बिछुरै, तुम्ह बिन प्राण सनेही। चिन्तामणि जब कर तैं छूटै, तब दुख पावै देही॥१॥ माता बालक दूध न देवै, सो कैसे कर पीवै। निर्धन का धन अनत भुलाना, सो कैसे कर जीवै॥२॥ बरषहु राम सदा सुख अमृत, नीझर निर्मल धारा। प्रेम पियाला भर भर दीजे, दादू दास तुम्हारा॥३॥ हे प्राणप्यारे परमात्मन् ! तुम हमको क्यों भूल रहे हो ? आप तो हमारे जीवन के प्राणाधार हो। जैसे जल से बाहर आई हुई मछली जल के बिना नहीं जी सकती अथवा जैसे निर्धन मनुष्य हाथ में आई हुई चिन्तामणि को नष्ट देखकर दुःखी होता है, वैसे ही मैं भी आपके बिना नहीं जी सकता हूँ। जैसे माता अपने पुत्र को स्तनपान न करावे तो वह बच्चा दूध कैसे पी सकता है ? इसी तरह यदि आप अपना दर्शन न देवें तो आप के भक्त दर्शनामृत को कैसे पा सकते हैं ? जैसे दरिद्र मनुष्य जिसका धन नष्ट हो गया हो तो उसका जीवन सुख से कैसे व्यतीत हो सकता है, वैसे ही हे परमधन परमात्मन् ! आपके बिना मैं कैसे सुख से जी सकता हूँ ? अतः आप अपने दर्शनामृत की धारा वर्षाओ। मैं प्रेम का प्यासा हूँ, अपना प्रेमामृत पिलाकर मुझे जीवनदान दो। तुम्हारा यह दर्शनदान का इतना हठ क्यों हो रहा है ? तो मैं कहता हूँ कि मैं आपका दास भक्त हूँ। दास होने के कारण मेरा दर्शनों का जन्म सिद्ध अधिकार है। दासों का जीवन तो आपके दर्शनों से ही चलता है। आपकी सेवा ही हमारा लक्ष्य है। अतः दर्शन देकर मुझे उपकृत करें।