देशवासी स्वविवेक से एक देश एक चुनाव पर विचार करें: डॉ.नरेंद्र कुसुम

AYUSH ANTIMA
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जयपुर : 'मुक्त मंच' की 93वीं संगोष्ठी विदुषी परमहंस योगिनी डॉ.पुष्पलता गर्ग के सान्निध्य में योगसाधना आश्रम में 'लोकतान्त्रिक चेतना: एक देश एक साथ चुनाव' विषय पर हुई जिसकी अध्यक्षता बहुभाषाविद डॉ.नरेन्द्र शर्मा 'कुसुम' ने की। संगोष्ठी का संयोजन 'शब्द संसार' अध्यक्ष श्रीकृष्ण शर्मा ने किया। अपने संयोजकीय वक्तव्य में शर्मा ने कहा कि सितम्बर 2023 में एक राष्ट्र एक चुनाव के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविद की अध्यक्षता में उच्चस्तरीय समिति बनाई थी, जिसने 15 मार्च को अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति मुर्मू को सौंप दी है। इसे 18 सितम्बर 2024 को मंत्रिमण्डल स्वीकृति के बाद जेपीसी को भेज दी है।
डॉ.नरेन्द्र शर्मा 'कुसुम' ने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि आजकल पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर बहस हो रही है। परिवर्तन अवश्य होने चाहिए क्योंकि श्रेष्ठ परम्पराएँ भी लम्बे अर्से तक चलते चलते जीर्ण-शीर्ण होने लगती है। नीयत साफ हो तो नीतियां भी साफ बनेगी। जनता की आवाज लोकतन्त्र की प्राणवता का आधार है। एक सुसंगठित राष्ट्र के हर नागरिक का कर्तव्य है कि इस प्रस्ताव पर स्वविवेक से विचार करें। ‘बिहेवियरल’ साइन्स के प्रो.सुभाष गुप्ता ने कहा कि जनता को भटकाव के रास्ते पर अग्रसर करना अनुचित है। वर्तमान चुनाव पद्धित अत्यधिक खर्चीली है जबकि मुश्किल से उसमे आठ हजार करोङ रुपये खर्च होते है जबकि एक साथ देश के चुनाव कार्य में डेढ लाख करोङ रुपये का व्यय आएगा। किसी भी हालत में खर्च में कमी नहीं होगी। संविधान में सोलह संशोधन करने होंगे। इस व्यवस्था से राज्य शक्तिहीन होंगे और क्षेत्रीय दल कमजोर होंगे। वस्तुत: यह व्यवहारिक नहीं है और लोकतन्त्र विरोधी है। यह अमेरिका की भांति राष्ट्रपति प्रणाली की वकालत है। एक देश एक चुनाव लोकतन्त्रीय शासन की समाप्ति का आधार बाबेगा।
पूर्व मुख्य अभियन्ता दामोदर चिरानिया ने कहा कि आज़ादी के बाद राजनीतिक दलों की व्यवस्था में जो लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं का स्वरुप था, उसमें विकृतियां आने लगी। अधिकांश पार्टियों मे आन्तरिक लोकतन्त्र नहीं है और अधिकांश के नेतृत्व पारिवारिक आधारित हैं। अत: समय-समय पर चुनाव होते रहें तो शासक निरंकुश नहीं हो पाएंगे। आज राजनीतिकरण के साथ अपराधीकरण से उसे मुक्ति दिलाने की आवश्यकता है। चुनाव 5 वर्ष के लिए ही हो। लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में सुधारों की आवश्यकता है। वरिष्ठ अधिवक्ता और लेखक भारत भूषण पारीक ने कहा कि लोकतान्त्रिक चेतना तभी सम्भव है जब भारतीय संविधान में पूर्णरुप से आस्था रखते हुए, स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व तथा एकता और अखण्डता में विश्वास रखें। एक साथ चुनावों का विकल्प अव्यवहारिक है क्योंकि हर राज्य की समस्याएँ अलग, उनका समाधान भी अनेकविध है, बहुविध है।
वरिष्ठ चिन्तक ए.आर.पठान ने कहा कि एशिया, इण्डोनेशिया, जकार्ता तथा चीन जैसे देशों में चुनाव पर पैसे तो खर्च होते ही हैं। चीन में करारोपण की दर 70-80 प्रतिशत है जबकि भारत मे तो 10-12 प्रतिशत भी कर बहुत लगता है। आज शिक्षित होने का कोई अर्थ नहीं पीएचडी डिग्रीधारी भी बेरोजगार है। फिर एक बार चुनाव हो जाए तो 5 वर्ष तक आदमी एक ही कैडर, रैंक में जमा रहता है जबकि ऐसा भारत में ही सम्भव है। आइएएस रिटा. आर.सी.जैन ने कहा कि पहले एक चुनाव आयुक्त होता था और आज तीन चुनाव आयुक्त है फिर भी समस्याएँ जटिल होती जा रही हैं। चुनाव एक साथ हो या पाँच वर्ष की समयावधि में, सवाल नीति और नीयत जब तक साफ नहीं होगी धांधली चलती रहेगी। मुख्य अतिथि आईएएस रिटा. अरुण ओझा ने कहा कि एक देश एक साथ चुनाव प्रस्ताव अच्छा है पर व्यावहारिक नहीं लगता। राज्य सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाती और बीच मंझधार लङखङा जाती है। अभी 2-4 राज्यों के चुनाव भी एक साथ नहीं हो पाए फिर 29 राज्यों और 8 केन्द्र शासित राज्यों के चुनाव एक साथ कैसे करा पाएँगे ? इसका विराट इन्फ्रास्ट्रक्चर हमारे पास कहाँ है और खर्चे में कमी की बात भी खयाली है। वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र बोडा ने कहा कि भारत में लोकतान्त्रिक चेतना के आधार पर एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान में कई संशोधन करने होंगे। अत: जब तक चुनाव आयोग को पूर्ण स्वायतता न दी जाय, राजनीतिक दलों की आय को सार्वजनिक करने की व्यवस्था न की जाए तथा चुनावों में हो रहे व्यय पर मॉनिट्रिंग न की जाए, नेताओं के भङकीले, तथ्यहीन भाषण रोके न जाए तब तक एक साथ चुनाव असम्भव है। वरिष्ठ व्यंगकार एवं साहित्यकार फारुक आफरीदी, सुमनेश शर्मा, इन्द्र भंसाली, डॉ.सुषमा शर्मा, ललित शर्मा, रमेश खण्डेलवाल ने भी विचार व्यक्त किए।अन्त में परमहंस योगिनी डॉ.पुष्पलता गर्ग ने समापन भाषण दिया।

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