(आयुष अंतिमा नेटवर्क)
तिस घरि जाना वे, जहाँ वे अकल स्वरूप, सोइ इब ध्याइये रे, सब देवन का भूप॥ अकल स्वरूप पीव का, बान बरन न पाइये।अखंड मंडल माँहि रहै, सोई प्रीतम गाइये॥ गावहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा, प्रकट पीव ते पाइये। सांई सेती संग साचा, जीवित तिस घर जाइये॥१॥ अकल स्वरूप पीव का, कैसे करि आलेखिये। शून्य मंडल माँहि साचा, नैन भर सो देखिये॥देखो लोचन सार वे, देखो लोचन सार, सोई प्रकट होई, यह अचम्भा पेखिये। दयावंत दयालु ऐसो, बरण अति विशेखिये॥२॥अकल स्वरूप पीव का, प्राण जीव का, सोई जन जे पावही।दयावंत दयालु ऐसो, सहजैं आप लखावही॥ लखै सु लखणहार वे, लखै सोई संग होई, अगम बैन सुनावही। सब दुःख भागा रंग लागा, काहे न मंगल गावही॥३॥अकल स्वरूप पीव का, कर कैसे करि आणिये। निरन्तर निर्धार आपै, अन्तर सोई जाणिये॥जाणहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा, सुमिर सोई बखानिये। श्री रंग सेती रंग लागा, दादू तो सुख मानिये॥४॥ हे साधक ! जहां पर निष्फल निरंजन ब्रह्म प्राप्त होता है, उस निर्विकल्प रूप समाधि घर में पहुँच। वहां पर उस देवाधिदेव ब्रह्म का ध्यान कर। उस निराकार प्रियतम ब्रह्म की कोई जाति, रूप, रंग, वेष आदि कुछ नहीं होता। वह अपने अखण्ड महिमामण्डल में विराजता है। उसी ब्रह्म का यशोगान करता हुआ अपने अन्तःकरण में उसका विचार कर, क्योंकि विचार करने वाले साधक को उसका प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है और उस निर्विकल्प समाधि में ही उस साधक का अभेद रूप संग ब्रह्म से हो जाता है। अतः उस निरवयव प्रियतम ब्रह्म के साक्षात्कार के लिये यत्न करना चाहिये। वह साधक को सहस्त्रारचक्र-रूप शून्य मंडल में दीखता है। अतः तुम भी ज्ञान-नेत्रों द्वारा उसके दर्शनों के लिये यत्न करो। वहां पर अद्भुत आश्चर्य होता है कि निरंजन निराकार ब्रह्म स्वयं ही प्रकट हो जाते हैं। वह परमात्मा अति दयालु है, वह भक्तों की भावना के अनुसार अपनी माया से रूपरंग वाले से प्रतीत होने लगता हैं, जो जीवों के प्राणों के आधार भूत निरंजन निराकार रूप ब्रह्म है, उसके स्वरूप का दर्शन तो भक्त ही कर सकते हैं क्योंकि वह प्रभु निरतिशय दयासागर अति ही दयालु हैं कि भक्तों को अनायास ही दर्शन दे देते हैं।
अतः उस सर्वगुणसंपन्न ब्रह्म को भक्त ही देख सकता है और उसको देखकर भक्त उससे अभिन्न होता हुआ उसके संग को प्राप्त कर लेता है। उसके संग से भक्त अगम्यवाणी बोलने लगता और सब दुःखों को पार कर जाता है। ब्रह्म के अभेद भाव रूप रंग से रंगा हुआ उसका संगी हो जाता है, अतः उसीका गुणगान कर। निष्कलं ब्रह्म का कृपा रूपी हाथ किसी प्रकार से अपने शिर पर धारण कर। अविचल ब्रह्म के साथ अपनी आत्मा का अभेद निश्चय करके साधक को अद्वैत निष्ठा में ही रहना चाहिये। अन्तःकरण में विचार करके उस विचार द्वारा ही उस ब्रह्म को देखा जा सकता है, क्योंकि विश्व के सारभूत उस ब्रह्म के ज्ञान का अन्तःकरण ही उपाय माना गया है। अतः उसी का स्मरण करो, उसीका ध्यान करो। उसी का और कथन करो, इस तरह उपाय करने से साधक का उसमें प्रेम पैदा हो जाता है तब ही साधक को सुखी समझना चाहिये। इस स्थिति पर पहुंचने से पहले तो साधक विरहपूर्वक हरिचिन्तन करता रहे।
कठोपनिषद् में कहा है कि –
परमात्मा का परमतत्व शुद्ध मन से ही जाना जा सकता है। इस जगत् में एक मात्र परमात्मा ही परिपूर्ण है। सब कुछ उन्हीं का स्वरूप है, परमात्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है, जो भिन्नता देखता है, वह मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है। जैसे दूध में घृत छिपा हुआ है, वैसे ही ब्रह्म भी प्राणि मात्र में छिपे हुए हैं। जैसे घी को प्राप्त करने के लिये बिलौना पड़ता है, वैसे ही उस ब्रह्म को भी जो भूतों में स्थित है, मन रूपी मन्थन-दण्ड से बिलौना (विचार) चाहिये, क्योंकि बार बार मन्थन करने से ही वह मिलता है। जो योगमाया के पर्दे में छिपा हुआ सर्वव्यापी हृदय रूपी गुहा में स्थित है, अतएव संसार रूपी गहन वन में रहने वाले और कठिनाई से देखे जाने वाले परमात्मदेव को शुद्ध बुद्धि युक्त साधक अध्यात्म योग की प्राप्ति के द्वारा समझ कर हर्ष शोक को त्याग देता है ।