शिक्षा, चिकित्सा आदि देश के हर नागरिक की मूलभूत आवश्यकताओं में आता है लेकिन जिस तरह से पिछले दशकों से शिक्षा का व्यापारी करण हुआ है। इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रश्न चिन्ह खड़े होते है। देश के इतिहास में वह कालखंड स्वर्णिम था, जब भामाशाहों शिक्षा, स्वास्थ्य व पीने के पानी को लेकर बहुत संवेदनशील थे और समाज सेवा को लेकर अनगिनत स्कूल, कालेज, अस्पताल, धर्मशालाए व कुंओ व बावड़ियों का निर्माण जनसेवा के लिए करवाए लेकिन समय बदला इस अर्थ युग में शिक्षा को व्यापार बना लिया। यह व्यापार जब उच्च शिक्षा पीएचडी की डिग्री में फर्जीवाड़ा हो तो मामला गंभीर ही नहीं बल्कि शिक्षा के अस्तित्व व अखंडता पर खतरा है। सूत्रों की मानें तो एक चुरू जिला व एक झुंझुनूं जिले में संचालित विश्वविद्यालयों में आगामी पांच सालों के लिए पीएचडी विद्वानों के दाखिले पर विश्व विद्यालय अनुदान आयोग ने रोक लगा दी है। इसके साथ ही आयोग ने आवाम को आगाह किया है कि इन विश्वविद्यालयों में पीएचडी के प्रवेश के लिए मुंह न करें क्योंकि आयोग के मानदंडों पर यह दोनों विश्वविद्यालय खरे नहीं उतरे। अब सवाल उठता है कि ऐसे विश्विद्यालयों ने पीएचडी जैसी उच्च डिग्री की बंदरबांट कर दी, उसको लेकर शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रश्न उठने लाजिमी है। जब ऐसी विश्वविद्यालयों से पीएचडी करके कालेजो में प्रोफेसर या लेक्चर लगेंगे तो कैसी शिक्षा देंगे यह सर्व विदित है। ऐसे विश्वविद्यालय डिग्री देते नहीं बल्कि डिग्री बेचते है। उच्च शिक्षा में इस तरह का फर्जीवाड़ा इस बात को इंगित करता है कि देश में शिक्षा माफिया इतना हावी हो गया है, जिसके तार सियासत से जुड़े हैं। शिक्षा ने एक इंडस्ट्री का रूप ले लिया है। विदित है इंडस्ट्री में घाटे का सौदा तो होता ही नहीं है, चाहे इसको लेकर कुछ भी करना पड़े। वहीं झुंझुनूं की इस विश्वविद्यालय ने किया, जो कि एक प्रतिष्ठित भामाशाह के नाम से संचालित विश्वविद्यालय है। अब यह ज्वलंत प्रश्न है कि आखिर शिक्षा के इस तरह से व्यापारी करण होने से क्या भारत विश्व गुरू बन सकता है ।
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