जनसंघ के समय से ही विप्र समाज भाजपा का परम्परागत वोट बैंक रहा है। जिले में आरक्षित सीट को छोड़कर भाजपा ने एक विशेष जाति को तवज्जो दी है। जिले में विधायक की डिजायर पर अधिकारी लगाए जा रहे हैं, देखा जाए तो इसमें भी विप्र समाज के अधिकारियों को दरकिनार किया जा रहा है। जिले में प्रशासनिक स्तर पर जातिवाद का बोलबाला है। सूत्रों की मानें तो झुंझुनूं नगर परिषद के परिसीमन में भी उन गांवों को जोड़कर नगर परिषद में अपने चहेतो को नगर परिषद की कुर्सी पर बैठाने को लेकर रोड मैप तैयार कर लिया गया है। विदित हो संगठनात्मक चुनाव होने हैं, यदि जिलाध्यक्ष बदला जाता है तो जिलाध्यक्ष को लेकर विप्र समाज की दावेदारी बनती है लेकिन पूर्व विधायक इस दौड़ मे शामिल होने से ऐसा लगता है कि जिले मे सरकार में भागीदारी के बाद संगठन में भी अपना वर्चस्व रखना चाहते हैं। विप्रो के प्रति भजन लाल शर्मा सरकार की संवेदनशीलता इसी से प्रदर्शित होती है कि अन्य जातियों के कल्याण बोर्डो का पुनर्गठन हो चुका है लेकिन विप्र कल्याण बोर्ड का पुनर्गठन अभी तक नहीं हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि विप्र समाज को अलग-थलग करने की कवायद हो रही है। संगठनात्मक चुनावों को लेकर धड़ेबाजी स्पष्ट दिखाई दे रही है। हालांकि वर्तमान जिलाध्यक्ष के कार्यकाल ने उस गुटबाजी पर लगाम लगाई थी, जो पूर्व जिलाध्यक्ष के समय चरम पर थी, उसी का नतीजा रहा कि भाजपा ने झुंझुनूं उपचुनाव में कांग्रेस के अजेय गढ़ को ध्वस्त कर दिया। विदित हो चुनाव एक जाति के वोटो द्वारा नहीं जीते जाते, जिस नेता पर सर्व समाज का आशीर्वाद होता है, वही चुनावी समर में विजय प्राप्त करता है। इस बात का अहसास झुंझुनूं विधायक को होना चाहिए कि उनकी जीत में सर्व समाज के योगदान के साथ विप्र समाज की भी अहम भूमिका रही है। हालांकि संगठनात्मक चुनावों में नियुक्ति भाजपा प्रदेश नेतृत्व के विशेषाधिकार में आती है लेकिन विप्र समाज की अनदेखी कहीं न कहीं भाजपा के लिए घाटे का सौदा हो सकता है। कहीं विप्र समाज की अनदेखी से यह परंपरागत वोट बैंक भाजपा से विमुख न हो जाए ।
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