हम पाया, हम पाया रे भाई, भेष बनाइ ऐसी मनि आई। भीतर का यह भेद न जानैं, कहै सुहागिनि क्यों मन मां॥ अन्तर पीव सौं पर्चा नांहीं, भई सुहागिनि लोकन माहीं। सांई सुपनै कबहुं न आवै, कहिवा ऐसैं महलि बुलावै॥ इन बातनि मोहि अचरज आवै, पटम किये कैसैं पिव पावै। दादू सुहागिनि ऐसे कोई, आपा मेटि राम रत होई॥ दाम्भिक पुरुष अपनी ख्याति प्राप्त करने के लिये सन्तों का वेश बनाकर संसारी लोगों को झूठ ही कहता है कि हमने तो परमात्मा को जान लिया। उस दाम्भिक पुरुष ने तो स्वप्न में भी कभी-प्रभु का आलिङ्गन नहीं किया तो वह जागृत् में प्रभु को कैसे जान सकता है। जिस स्त्री ने अपने पति का आलिङ्गन नहीं किया तो उसका सुहाग-सौभाग्य कैसे माना जा सकता है। वैसे ही दाम्भिक पुरुष अपने को मिथ्या ही सौभाग्यवान् कहता है। उसने प्रभु का आलिङ्गन किया ही नहीं। ऐसे दाम्भिक पुरुषों का मैं विश्वास नहीं करता। उन पर प्रभु की भी कृपा नहीं होती, किन्तु जो पाप, पाखण्ड, अहंकार आदि को त्याग कर प्रभु भक्ति में अनुरक्त रहता है, वह ही सौभाग्यवान् है। उसी पर प्रभु प्रसन्न होते हैं। अत: साधक को पाप, पाखण्ड, अहंकार आदि को त्याग कर हरि-भक्ति करनी चाहिये। मनुस्मृति में-पापी अधर्मियों की शीघ्र ही दुर्गति होती है, ऐसा समझ कर मनुष्यों को चाहिये कि धर्म के पालन में दुःख होने पर भी अधर्म में अपने मन को न लगावें। अधर्मी पहले बढता है, फिर वह अधर्म को ही अच्छा मानता है, फिर अपने शत्रुओं को भी जीत लेता है। लेकिन अन्त में जड़ सहित नष्ट हो जाते हैं।
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