शहर जाने की चाह में गाँव से निकल के गाँव में ही रह जाती है।
उसके हिस्से की डामर तो ठेकेदार की काली कमाई की लाल फ़ाइल खा जाती है।।
ऊबड़ खाबड़ से रास्तों पे
न जाने कितनी जाने जाती हैं। गाँव की फसलें और सब्जियां तो
मंडी में जाने से पहले ही सड़ जाती हैं।।
ठीक करने के नाम पे चिपका दी जाती हैं काली पट्टियां गड्ढों पे।
जो सड़क के गड्ढे तो भर नहीं पाती पर ठेकेदार और नेताओं के काले कारनामों को छुपा जाती हैं।।
अधिग्रहण को तो ले ली जाती हैं जमीनें गाँवों की पर सड़क फिर भी नहीं आ पाती है।
भारी वाहनों की रगड़ से
पतली सड़क की कमज़ोर छाती छिल जाती हैं।।
सड़क निर्माण की बोली में
ईमानदारी छूट जाती हैं। ठेकेदार की चुप्पी में नेता की हँसी दिख जाती है, वाहन फ़ंसते, बच्चे सहमते, गर्भवती गिर जाती हैं।।
नेता शिलान्यास के बाद नजर नहीं आता है, किसान फसल कम दाम पे बेचने को मजबूर होता है। हर साल गड्ढा भी टेंडर में ठेकेदार का साथी बन जाता है, कागज खाके ही पत्थर सा पक्का हो पाता है।।
’भारत गांवों में बसता है’ की झूठी उक्तियां रहेगी। जब तक टूटी रहेंगी ये सड़के "उमा"
किस्मत गांवों की रूठी रहेगी।।