हो ऐसा ज्ञान ध्यान, गुरु बिना क्यौं पावै। वार पार पार वार, दुस्तर तिर आवै हो। भवन गवन गवन भवन, मन हीं मन लावै।
रवन छवन रवन, सद्गुरु समझावै हो॥ क्षीर नीर नीर क्षीर, प्रेम गति भावे। प्राण कमल विगसि विगसि, गोविन्द गुण गावै हो॥
ज्योति जुगति बाट घाट, लै समाधि ध्यावै। परम नूर परम तेज दादू दिखलावै हो।। संतशिरोमणि श्री दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि :: हे तात ! सद्गुरु की कृपा के बिना कोई भी ज्ञान ध्यान प्राप्त नहीं हो सकता, जिस ज्ञान से साधक दुस्तर संसार की वासना को पार करके निरासक्त हो जाता है। विषय भवन में जाने वाली वृत्ति को मन से अपने मन में ही विचार कर परब्रह्म परमात्मा के विचार में लीन कर देनी चाहिये। ब्रह्माकारा वृत्ति ब्रह्म में लगी हुई स्थिर हो जाती है और फिर विषय-गामिनी नहीं होती। ऐसा ज्ञान गुरु-कृपा से ही प्राप्त होता है। जैसे जल में दूध और दूध में जल मिलकर एक हो जाता है, ऐसे ही ब्रह्म से मिली हुई मन की वृत्ति ब्रह्माकार हो जाती है। जब मन ब्रह्माकार हो जाता है तब उसमें प्रभु का प्रेम पैदा होता है और वह मन प्रेम के पैदा होने से कमल की तरह विकसित होता हुआ प्रसन्न होता है, नाचता है और गोविन्द के गुण गाता है। योग के मार्ग से ब्रह्मज्योति का साक्षात्कार करने के लिये मन को वृत्ति जब अन्तर्मुख होकर समाधि में स्थित होकर ब्रह्मसाक्षात्कार को पैदा करती है, उस समय तेजोमय परमात्मा का दर्शन होता है। अत: अपने मन की वृत्ति को स्थिर करके आत्म साक्षात्कार के लिये प्रयत्न करना चाहिये। विषयों में आसक्त मन बन्धन का कारण है और निर्विषय मन मुक्ति का कारण बन जाता है। अत: बन्ध और मोक्ष का कारण मन ही है। जैसे प्रलय काल का अनन्त एकार्णव अपनी असंख्य तरङ्गों के कारण अनेक सा प्रतीत हो रहा है। उसके स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो जाय तो वह ही मोक्ष रूप सिद्धि को प्रदान करता है। परन्तु जो उसको तत्वत: नहीं जान लेता तो उसका मन सदा ही बन्धन में पड़ा रहता है।