राजस्थान की राजनीति में जिलों का पुनर्गठन हमेशा सत्ता के समीकरण साधने का औजार रहा है। अलवर संसदीय क्षेत्र से जुड़े खैरथल जिले का नाम हाल ही में बदलकर भर्तहरि नगर कर दिया गया। सतह पर इसे धार्मिक आस्था और ऐतिहासिक महत्त्व से जोड़ा गया, मगर असलियत में यह कदम गहरे राजनीतिक संकट की भूमिका तैयार करता दिख रहा है। खैरथल जिले का गठन जिस उत्साह से हुआ था, वही जल्द ही विवाद में बदल गया। जब तिजारा को खैरथल के साथ जोड़ा गया, तभी से मुख्यालय को लेकर असमंजस शुरू हो गया। भाजपा खेमे के कुछ प्रभावशाली नेता और उनके समर्थक खैरथल को मुख्यालय बनाए रखने के खिलाफ थे। उनकी नज़र किसी और जगह मुख्यालय ले जाने पर टिकी थी। अंततः वे अपने मंसूबे पूरे करते दिखाई दे रहे हैं। साफ है कि यह प्रशासनिक मजबूरी नहीं बल्कि राजनीतिक महत्वाकांक्षा का खेल है। पिछले कुछ महीनों में ही इस साज़िश के संकेत मिलने लगे थे। मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि खैरथल से जिला मुख्यालय हटाने का षड्यंत्र तैयार हो चुका है। अब नाम बदलना उसी प्रक्रिया का प्रतीकात्मक पहला कदम है। पहले चरण में खैरथल से पुलिस अधीक्षक कार्यालय समाप्त कर सिर्फ अपर पुलिस अधीक्षक को बैठाया जाएगा। असली चोट तब होगी जब मुख्यालय ही खिसक जाएगा। भिवाड़ी, तिजारा, कोटकासिम या कहीं भी लेकिन यह तय मानिए कि मुख्यालय खैरथल में टिकने वाला नहीं है। उस समय जनता इसे सीधे विश्वासघात मानेगी। करोड़ों रुपये की योजनाएँ और ढांचा ध्वस्त हो जाएगा, लेकिन सत्ता के लिए यह सब “गौण” कर दिया गया है। नए स्थान पर जिला ले जाने का मतलब होगा-एक हजार रुपये करोड़ का पलीता लगाना।
यह भी तय है कि जब कभी गैर-भाजपा सरकार सत्ता में आएगी तो फिर यही नाम और मुख्यालय राजनीति का हथियार बनेगा।
*खैरथल कोई मंदिर का घण्टा नहीं है, जिसे हर बार सत्ताधारी दल अपनी सुविधा से बना ले*
जिले की पहचान और जनता की भावनाएँ इस तरह के निर्णयों से बार-बार खेल का साधन नहीं बन सकतीं। रामलुभाया और ललित पंवार कमेटी ने गहन अध्ययन के बाद ही भिवाड़ी या तिजारा के बजाय खैरथल को जिला बनाने की सिफारिश की थी। अब अचानक ऐसा कौनसा पहाड़ टूट पड़ा, जिसकी वजह से आनन-फानन में न केवल जिले का नाम बदला गया बल्कि मुख्यालय बदलने की भूमिका भी तय कर दी गई। सबसे अहम सवाल यही है—41 जिलों में से सिर्फ खैरथल का नाम क्यों बदला गया ? यदि खैरथल-तिजारा नाम “असंगत” था, तो फिर कोटपूतली-बहरोड़ और डीडवाना-कुचामन यथावत क्यों हैं ? बहरोड़ के विधायक जसवंत यादव को चाहिए कि इस जिले का नाम “राठ नगर” या “बाबा खेतानाथ” के नाम पर करने के लिए आंदोलन प्रारम्भ करें। भाजपा के किसी नेता के पास इसका जवाब नहीं है कि आखिरकार समूचे प्रदेश में अकेले खैरथल जिले का नाम ही क्यों बदला गया। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह फैसला भाजपा के लिए बड़ा जाल साबित हो सकता है। नाम बदलने से उसे तात्कालिक धार्मिक और सांस्कृतिक तुष्टीकरण का लाभ भले मिले, लेकिन असली समस्या मुख्यालय खिसकने के बाद खड़ी होगी। उस दिन से जनता भाजपा को खुला विश्वासघात करने वाली पार्टी कहेगी। किशनगढ़ बांस, खैरथल, मुंडावर जैसे इलाकों में भाजपा की पकड़ ढीली पड़ जाएगी। इस पूरे विवाद का सबसे गहरा असर केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव पर पड़ेगा। वे अलवर से सांसद हैं और खैरथल, अलवर व बहरोड़ तीनों जिले उनके संसदीय क्षेत्र में आते हैं। ऐसे में जनता का असंतोष सीधे उन्हीं के खिलाफ मुखर हो सकता है। अब तक भूपेंद्र यादव को संगठन और सत्ता दोनों का मजबूत स्तंभ माना जाता रहा है, लेकिन यदि खैरथल से मुख्यालय हटता है तो जनता यह सवाल जरूर उठाएगी कि उन्होंने अपने ही संसदीय क्षेत्र की अस्मिता की रक्षा क्यों नहीं की ? दिलचस्प यह भी है कि भाजपा के भीतर ही कई नेता इस फैसले से असहज हैं। वे न केवल इसे हजम नहीं कर पा रहे, बल्कि दबे स्वर में असहमति भी जता रहे हैं। हालांकि पार्टी अनुशासन और राजनीतिक जोड़-तोड़ के दबाव में अभी खामोश हैं, लेकिन यह चुप्पी स्थायी नहीं है। भीतर ही भीतर पनप रहा आक्रोश कभी भी फूट सकता है और जब ऐसा होगा, तो इसका नुकसान भाजपा को भीतर और बाहर, दोनों स्तरों पर झेलना पड़ेगा।
असल में खैरथल का नाम बदलना भाजपा के लिए महज़ प्रतीकात्मक जीत है, लेकिन उसका असली खतरा अभी सामने आना बाकी है। यदि मुख्यालय खिसकता है (और खिसकना तय है) तो भाजपा अपने ही बनाए जाल में फँस जाएगी। कांग्रेस और क्षेत्रीय दल इस विश्वासघात को मुद्दा बनाकर सीधे जनता की नस पकड़ लेंगे।
सरकार और भाजपा नेताओं ने अपनी मनमानी की एक झलक दिखा दी है। पूरी फिल्म तो अभी बाकी है। यह भी संकेत हैं कि खैरथल से न केवल जिला बल्कि मंडी तक को बदलने की भूमिका तैयार की जा रही है। जिस दिन यहां से मुख्यालय चला गया, खैरथल कब्रिस्तान में तब्दील होकर रह जाएगा—न दफ्तर रहेंगे और न ही पहले जैसी चहल-पहल। मंडी में उल्लू बोलते दिखाई देंगे। भाजपा नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी नेता कुर्सी पर स्थायी नहीं होता। अच्छे काम याद रहते हैं, अन्यथा जो विकास के प्रति उदासीन रहते हैं, उन्हें सम्पतराम की तरह विलेन के रूप में ही याद किया जाता है। चुनाव क्षेत्र बदलना नेताओं का शौक है। अगर खैरथल में नाराजगी दिखाई दी पलायन कर चलते नया आशियाना खोजने लेकिन उनका क्या होगा जो अपनी पुत्री, पुत्र, दामाद, पुत्रवधु आदि को चुनाव मैदान में उतारने के ख्वाहिशमंद है, उनका बंटाधार सुनिश्चित है। खैरथल अब सिर्फ एक जिला नहीं, बल्कि राजस्थान की राजनीति में विश्वास और विश्वासघात की कसौटी बन चुका है। सवाल यही है कि क्या भाजपा इस खतरे को समय रहते समझ पाएगी या फिर खैरथल उसका राजनीतिक कब्रगाह साबित होगा ? अगर भाजपा अभी से सजग नही हुई तो 11 की जगह कही 1 सीट ही नही रह जाए। यह जनता है, जिसने अच्छे अच्छो को धूल चटा दी है।
*जनता और मीडिया के सामने खड़े अनुत्तरित सवाल*
* भर्तृहरि का खैरथल से क्या सीधा संबंध है ?
* उनका धार्मिक स्थल, मन्दिर या समाधि किस ग्राम पंचायत में है ?
* खसरा नम्बर और राजस्व रिकॉर्ड क्या कहते हैं ?
* यहां कब मेला भरता है और प्रशासन कितनी सुविधाएं देता है ?
* भाजपा नेता और जनप्रतिनिधि कितनी बार वहां गए ?
* पिछले वर्षों में सांसद, विधायक, मंत्री या स्थानीय प्रतिनिधि कितनी बार पहुंचे ?
* कोई फोटो, समाचार कतरन या वीडियो सार्वजनिक क्यों नहीं की गई ?
* विकास के लिए किसने कितनी राशि अपने कोटे से दी ?
*खैरथल मंडी और मुख्यालय का भविष्य*
* मंडी को कहां स्थानांतरित करने का इरादा है और कब तक ?
* जिला मुख्यालय किस स्थान पर प्रस्तावित है ?
*जनप्रतिनिधियों की भूमिका*
* खैरथल विधायक दीपचंद खैरिया ने नाम परिवर्तन पर सहमति दी या नहीं, यदि दी, तो अनुमति पत्र सार्वजनिक किया जाए।
* यदि नहीं दी, तो उनकी राय को क्यों दरकिनार किया गया ?
* भाजपा के किन नेताओं ने नाम बदलने की स्वीकृति दी? नाम सार्वजनिक हों।
यह सारे सवाल आज खैरथल की जनता ही नहीं, बल्कि पूरा राजस्थान पूछ रहा है और जब तक इन सवालों के जवाब नहीं मिलते, तब तक भाजपा का यह फैसला न सिर्फ संदिग्ध बल्कि आत्मघाती भी माना जाएगा।