मेरा मेरा छाड़ि गंवारा, शिर पर तेरे सिरजनहारा। अपने जीव विचारत नांहीं, क्या ले गइला वंश तुम्हारा॥ तब मेरा कृत करता नांहीं, आवत है हंकारा। काल चक्र सौं खरी परी रे, बिसरि गया घरबारा॥ जाइ तहां का संजम कीजै, विकट पंथ गिरधारा। दादू रे तन अपनां नाही, तौ कैसैं भया संसारा॥ अर्थात हे मूर्ख ! “यह तेरा, यह मेरा” इस भाव को त्याग दे क्योंकि यह सब परमात्मा ने पैदा किया है, अत: सब उसका ही है, विचार कर देख। तेरे पूर्वज पिता, पितामह आदि वंशजों के साथ क्या गया ? कुछ नहीं ले गये तो फिर व्यर्थ में ही तेरा-मेरा करके ममता से व्याकुल क्यों हो रहा है ? जिस समय यमदूत यहां आकर इस जीव को पकड़ कर ले जायेंगे, तब तेरी ममता कहां चली जायगी ? जब कालचक्र के वश में होकर वैतरणी के विकट मार्ग से तुझे ले जायेंगे तब क्या तूं संयम कर सकेगा ? नहीं। हे भाई ! विचार कर देख, जब शरीर ही तेरा नहीं है तो फिर अन्य वस्तुयें तेरी कैसे हो सकती हैं ? इसलिये तेरे-मेरे भाव को त्याग कर हरि का भजन कर।
अध्यात्म रामायण में लिखा है ::हे लक्ष्मण ! यह देह, राज्य आदि दिखने वाले सारे पदार्थ यदि सच्चे होते तो तुम्हारा परिश्रम अवश्य सफल होता। पिता, माता, पुत्र, भाई, स्त्री, बन्धु-बान्धवों का संयोग प्याऊ पर एकत्रित हुए जीवों अथवा नदी प्रवाह में इकट्टी हुई लकड़ियों के समान चञ्चल है और यह संसार सदा रागादिक से व्याप्त तथा स्वप और गन्धर्व-नगर के समान मिथ्या है। मूढ मनुष्य इनको सत्य मानकर इनका अनुसरण करते हैं। देह में अहं भाव करने वाला जीव इस कृमि-विष्ठा और भस्म रूप से परिणत होने वाले शरीर का जो मै राजा हूं, ऐसा मानता है, वह ज्ञानी नहीं, क्योंकि 'मैं देह हूं' इस बुद्धि का नाम ही अविद्या है और मैं देह नहीं, चेतन आत्मा हूं इस ज्ञान को ही विद्या कहते हैं। अविद्या ही जन्म-मरण रूप संसार का कारण है और ममता को त्याग कर विद्या उसको निवृत्त करने वाली है। अत: मुमुक्षु पुरुष को विद्या का अभ्यास करना चाहिये।