एक तरफ जातिवाद को खत्म कर समाज में भाईचारे की भावना लाने की बातें हो रही है कि इस जातिवाद के जहर ने हमारे समाज को खोखला कर दिया है लेकिन राजनीतिक दल इसी ब्रह्मास्त्र के सहारे समाज में जातिवाद का जहर फैलाकर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। जातिसूचक के उच्चारण मात्र से किसी व्यक्ति को सजा हो सकती है। इसके विपरीत मोदी कैबिनेट ने अगली जनगणना का आधार जातिगत करने का फैसला लिया है। सरकार का दावा है कि इससे सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा मिलने के साथ ही निति निर्माण में पारदर्शिता लाना है। यानी देश की योजनाएं भी अब जातिवाद पर आधारित होगी। जिस तरह से मनमोहन सरकार ने कहा था कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यको का है, ठीक मोदी सरकार भी यह दावा करेगी कि अमुक जाति का हक सरकारी संसाधनों पर ज्यादा है। यानी योजनाएं 150 करोड़ जनता को देखकर नहीं बनेगी, देश अलग अलग कबीलों में बंटने के बाद कबीलों को प्राथमिकता दी जायेगी। केन्द्र सरकार के इस फैसले से कांग्रेस की बाछें खिल उठी है कि उसके नेता राहुल गांधी के दबाव में सरकार को यह फैसला लेना पड़ा। कांग्रेस जो फूट डालो और राज करने की राजनीति को लेकर माहिर रही है, इस फैसले को भी उसी चश्मे से देख रही है। इससे पहले जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी। बीते एक दशक से भाजपा की राजनीति का आधार हिन्दुत्व का एजेंडा और हिन्दू राष्ट्रवाद रहा है। हिन्दू धर्म मे ओबीसी यानी पिछड़ी जातियों की बड़ी जनसंख्या है। इसके माध्यम से वंचित वर्ग की पहचान होगी, इसके साथ ही समाज मे फैली असनानताओ को दूर किया जा सकता है। आरक्षण की सीमा को लेकर 1992 में सुप्रीम कोर्ट की नौ न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने फैसला सुनाया था कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो सकती लेकिन जातिगत मतगणना से यह कोटा बढ़ाने की मांग भी जोर पकड़ सकती है।
मंडल कमंडल के नाम से भारत के इतिहास में राजनीति बहुत ही प्रचलित रही। भाजपा ने राम मंदिर को लेकर निकाली गई रथ यात्रा के एकमात्र ध्येय राजनीति से प्रेरित था कि हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण किया जाए। वीपी सिंह सरकार ने इस काट को लेकर मंडल कमीशन लागू कर भाजपा के हिन्दुत्व के दावे में सेंधमारी कर ओबीसी आरक्षण की सीढ़ी चढ़कर हिन्दु वोटरों को ही विभक्त कर दिया। उस समय ओबीसी आरक्षण को लेकर हिंसा हुई थी, यहां तक कि कुछ लोगों ने आत्मदाह करने के प्रयास भी किए थे। इसी तरह जातिगत मतगणना के आंकड़े समाज में नये विभाजन को करने मे सहायक होंगे। इसको लेकर सामाजिक व राजनीतिक चुनौतियां देखने को मिल सकती है। इस व्यवस्था से समाज का जातिगत विभाजन बहुत गहरा हो सकता है। जातिगत आकडो का उपयोग केवल राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की राजनीति के लिए होगा। क्षेत्रीय राजनीतिक दल और जातिगत आधार पर संगठित राजनीतिक दल इसका लाभ लेकर सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने का काम करेंगे। इससे आरक्षण की सीमा बढ़ाए जाने की मांग प्रबल हो सकती है, जिससे सामाजिक अशांति व समाज में वैमनस्य का भी बीजारोपण हो सकता है। जातिगत जनगणना से मुसलमानों की भी जातियां सामने आयेगी। इसको लेकर मुस्लिम समाज को लेकर आरक्षण दिलाने की मांग बढ़ सकती है। जातिवाद जैसे नासूर को खत्म करने के बजाय बिहार में विधानसभा के चुनावों के मध्य नजर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चुनावी मास्टर स्ट्रोक हो सकता क्योंकि बिहार में जातिवाद बहुत हावी रहता है ।