चोर न भावै चाँदणा, जनि उजियारा होइ। सूते का सब धन हरु,मुझे न देखै कोइ। संतशिरोमणि महर्षि श्रीदादूदयाल जी महाराज कहते है कि चोर को उजाला अच्छा नहीं लगता क्योंकि उजाले में चोरी नहीं कर सकता। उजाला उसके कार्य में बाधक है और प्रकाश में सब लोग जाग जाते हैं तो वह पकड़ा जाता है, किंतु वह तो अंधकार में ही रहना चाहता है क्योंकि अंधकार उसके दुर्जेय कर्मो में सहायक होता है। ऐसे ही अज्ञानी ज्ञान को नहीं चाहता क्योंकि ज्ञान होने पर सब दुष्कृत्य कर्म छूट जाते हैं। अतः अज्ञानरुपी अंधकार में जो सोता रहता है, उसके सारे सदगुण रूपी धन को अज्ञान चुराकर ले जाता है, अर्थात नष्ट कर देता है। अतः सज्जनों को चाहिए कि वह ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करें।
विवेक चूड़ामणि में प्रमाद के कारण मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न जो भ्रांतिज्ञान है तब तक जीव भाव की सत्ता भी बनी रहेगी। जैसे रस्सी में सर्प का ज्ञान भ्रान्तिकाल में ही होता है। भ्रान्ति काल के नष्ट होने पर सर्प की जैसी निवृत्ति हो जाती है। महाभारत में इस लोक में किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना नाश नहीं होता। वे कर्म ही कर्मानुसार एक के बाद एक शरीर को धारण करवा कर फल देते रहते हैं। मनुष्य शुभ-अशुभ जो जो कर्म करता है, पूर्व जन्म के शरीर से किए गए उन सब कर्मों का फल उसको अगले जन्म में भोगना पड़ता है। अतः जो पारदर्शी विद्वान होते हैं, वह कर्मों में आसक्त नहीं होते क्योंकि पुरुष ज्ञानमय है, कर्ममय नहीं। अतः साधक को चाहिए कि ज्ञानमार्ग का अवलंबन करके घोर दुस्कर संसार सागर से पार चला जाए।