सो तत सहजै सुख मन कहणां, सांच पकड़ मन जुगि जुगि रहणा। प्रेम प्रीति कर नीकां राखै, बार बार सहज नर भाखै॥ मुख हिरदै सो सहज संभारे, तिहिं तत रहणां कदे न बिसारै॥ अन्तर सोई नीकां जाणे, निमिष न बिसरे ब्रह्म बखाण॥ सोइ सुजाण सुधारस पीजै, दादू देखु जुगि जुगि जीवै।। संतशिरोमणि श्री दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि सुषुम्ना में योगियों के द्वारा जो ब्रह्म तत्त्व प्राप्त किया जाता है। हे मन, तुम भी उसी तत्व को धारण करो। योगी जिस तत्व का प्रेमपूर्वक बार-बार सहजावस्था में अपने हृदय में ध्यान करते हैं, नाम जपते हैं, मन से स्मरण करते हैं, उसी तत्त्व मे तू अपनी वृत्ति को स्थिर कर। उस तत्त्व को तू भूल मत। संशय विपर्यरहित बुद्धि से उस तत्व को जानकर उसी का प्रवचन, उसीका कथन, श्रवण, मनन करते हुए ज्ञानी उस ब्रह्मरूपी सुधारस का पान करके साक्षात्कार के द्वारा जीवन्मुक्त हो जाते हैं। प्रति युग में जीते रहते हैं अर्थात् अमर हो जाते हैं। महाभारत अश्वमेधपर्व में- जो पवित्रात्मा मन को वश में करके रखता है और समस्त भूतों के प्रति अपने ही समान व्यवहार करता है तथा जिसमें मान गर्व का लेश भी नहीं है, वह सब तरह से मुक्त है। जो जीवन और मरण में, सुख और दुःख में, लाभ-अलाभ में, प्रिय-अप्रिय में समभाव रखता है, वह मुक्त माना जाता है। जो किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता और न किसी का तिरस्कार तथा सुख-दुःखादि द्वन्द्व और राग से रहित है, वह सर्वथा मुक्त है।
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