भारत का संविधान एक सर्वोच्च कानूनी प्राधिकरण है, जो सरकार के विधायकी, कार्यकारी ओर न्यायिक अंगो को बांधता है। स्वतन्त्र न्याय पालिका को संविधान का उल्लंघन करने वाले कानूनो या सरकारी कार्यों को अमान्य करने का अधिकार संविधान ही देता है। इसी सम्बंध में संसदीय सर्वोच्चता के वादे को खारिज करते हुए कहा कि यह संविधान ही है जो सर्वोच्च है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायिक समीक्षा एक ऐसा कार्य है, जो संविधान द्वारा न्याय पालिका को प्रदान किया गया है। जब न्यायालय कानून की संवैधानिकता का परीक्षण करते हैं तो वे संविधान के ढांचे के भीतर काम कर रहे होते हैं। विदित हो राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर कार्यवाही करने के लिए माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा समय-सीमा निर्धारित करने को लेकर उपराष्ट्रपति ने आलोचना करते हुए कहा था कि न्याय पालिका सुपर संसद बनने की कोशिश कर रही है। इसको लेकर कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र में राज्य की प्रत्येक शाखा चाहे वह विधायिका हो, कार्यपालिका हो या न्याय पालिका हो, विशेष रूप से एक संवैधानिक लोकतंत्र में संविधान के ढांचे के भीतर कार्य करती है। यह संविधान ही है, जो हम सभी से उपर है। यह संविधान ही है, जो तीनों अंगों में निहित शक्तियों पर सीमाएं व प्रतिबंध लगाता है। संसद ही सर्वोच्च है और संसद के उपर किसी भी प्राधिकरण के संविधान में कोई विचार नहीं है। इसको खारिज करते हुए माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब संवैधानिक अदालतें न्यायिक समीक्षा की अपनी शक्ति का प्रयोग करती है तो संविधान के ढांचे में कार्य करती है। यह शक्ति संविधान के निर्माताओं द्वारा अनुच्छेद 32 और 226 द्वारा स्पष्ट शब्दों में प्रदान की गई है। उक्त आदेश सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा नेता निशिकांत दुबे द्वारा सुप्रीम कोर्ट की कार्य प्रणाली पर गंभीर आरोप लगाए थे। एक जनहित अवमानना याचिका को खारिज करते जस्टिस संजीव खन्ना और संजय कुमार की पीठ ने कहा कि जज विवेकशील होते हैं। अदालतें स्वतन्त्र प्रेस, निष्पक्ष सुनवाई, न्यायिक निडरता और सामुदायिक विश्वास जैसे मूल्यों पर विश्वास रखती है। इसलिए अदालतें अवमानना की शक्ति का सहारा लेकर अपने फैसले और निर्णयों की रक्षा करने की जरूरत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निर्णय कानूनी सिद्धांतों के अनुसार किये जाते हैं, राजनीतिक, धार्मिक व सामुदायिक विचारो को ध्यान में रखते हुए नहीं।
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