धार्मिक उपदेश: धर्म कर्म

AYUSH ANTIMA
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गोबिन्द कबहूं मिलै पिव मेरा, चरण कमल क्यूंहीं कर देखू, राखू नैंनहुँ नेरा।। निरखण का मोहि चाव घणेरा, कब मुख देखू तेरा। प्राण मिलन कौं भये उदासी, मिलि तूं मीत सवेरा॥
व्याकुल ताथै भई तन देही, सिर पर जम का हेरा। दादू रे जन राम मिलन कू, तपई तन बहुतेरा।। 
हे गोविन्द ! आप कब मिलेंगे और कब आपका दर्शन करके आपके चरण-कमलों को मेरे नेत्रों के पास रख सकूँगा ? आपके मुखारविन्द का दर्शन करने के लिये मेरे मन में बड़ा ही उत्साह हो रहा है। हे नाथ। मैं तो यह निश्चित नहीं कह सकता कि आपके दर्शन मुझे कब होंगे। मेरा मन तो आपके दर्शनों के लिये दुःखी हो रहा है। शिर पर खड़ा यम भी मुझे मार रहा है। इस स्थूल शरीर में रहने वाला जीवात्मा भी आपके दर्शनों के लिये व्याकुल हो रहा है। हा ! हा ! नाथ आपके भक्त का मन और शरीर प्रभु को देखने के लिये संतप्त हो रहे हैं। इसलिये हे मित्र ! जल्दी दर्शन देवो। भागवत में- इसमें संदेह नहीं है कि आज मैं अवश्य ही उन्हें देखूंगा। वे बड़े बड़े सन्तों और लोक पालों के एकमात्र आश्रय हैं। सबके परमगुरु हैं और उनका रूप सौन्दर्य तीनों लोकों के मन को मोहित करने वाला है। जो नेत्र वाले हैं, उनके लिये वह आनन्द और रस की चरम सीमा है। इसी से स्वयं लक्ष्मीजी के मन में भी, जो सौन्दर्य की अधीश्वरी है, उन्हें पाने के लिये लालसा बनी ही रहती है। हां, तो मैं उन्हें अवश्य देखूगा क्योंकि आज मेरा मंगल प्रभात है। आज मुझे प्रात:काल से ही अच्छे शकुन दिख रहे हैं।

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