का जानों राम ! को गति मेरी। मैं विषयी मनसा नहीं फेरी॥ जे मन मांगै सोई दीन्हा, जाता देख फेरि नहिं लीन्हा॥ देवा द्वन्द्वर अधिक पसारे, पाँचों पकर पटक नहिं मारे।। इन बातन घट भरे विकारा, तृष्णा तेज मोह नहिं हारा॥ इनहिं लाग मैं सेव न जानी, कहै दादू सुन कर्म कहानी॥ हे राम ! मेरी क्या गति होगी यह मैं नहीं जानता हूँ क्योंकि विषयों में आसक्त होने के कारण मन से कभी भी आपका भजन नहीं कर सका। मैंने सब कार्य मन के अनुकूल ही किये। कभी मन को विषयों से रोकने का उपाय भी नहीं किया। इन्द्रियों के अधीन होकर काम क्रोध आदि विकारों में ही मैंने अपना जीवन खो दिया। पञ्च ज्ञानेन्द्रियों को उन उनके विषयों को देकर उनका लालन किया, कभी विषयों से हटाने की चेष्टा भी नहीं की। विषयों से वैराग्य न होने के कारण आपकी भक्ति भी नहीं कर सकता। अब भी मेरा मन विषय विकारों से भरा रहता हैं, तृष्णा तो कभी शान्त होती ही नहीं। मोह भी मेरा नष्ट नहीं हुआ। इन्हीं कारणों से मैं आपकी भक्ति नहीं कर सका। यह ही मेरे कर्मों की कहानी हैं। अब मैं सोचता हूँ कि आपकी कृपा हो जाय तो मेरी सद्गति हो जाये अन्यथा नहीं क्योंकि आपकी कृपा के विषय में वैंकटनाथ ने दयाष्तक में लिखा है कि –
निषादराजगुह, सुग्रवी, शबरी, सुदामा, कुब्जा, ब्रज रमणियें तथा माली के निम्नत्व और वैंकटनाथ भगवान् की श्रेष्ठता इन दोनों के संयोग में आपकी अनुकम्पा ही हैं अर्थात् इनके निम्न होने पर भी उन सब पर आपकी दया हुई। अतः मेरे पर भी आपकी दया होनी चाहिये। भले ही मैं कितना ही निम्न क्यों न हूँ । वाल्मीक रामायण में सीताजी ने हनुमानजी को अपने सन्देश में दया को ही सबसे बड़ा धर्म बतलाया है।