धार्मिक उपदेश: धर्म कर्म

AYUSH ANTIMA
By -
0

ऐसा तत्व अनूपम भाई, मरै न जीवै काल न खाई॥ पावक जरै न मारै मरई, काट्यौ कटै न टार्यो टरई॥ अक्षर खिरै न लागै काई, शीत धाम जल डूबि, न जाई॥
माटी मिलै न गगन बिलाई, अघट एक रस रह्या समाई॥ ऐसा तत्त अनुपम कहिये, सो गहि दादू काहे न रहिये॥ संतशिरोमणि श्री दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि अर्थात् जगत् केवल अज्ञान से ही प्रतीत हो रहा है अज्ञान के नाश होने पर विश्व रहता ही नहीं। जैसे रज्जु में भ्रान्ति से सर्प बुद्धि हो रही है, रज्जु के ज्ञान होने पर सर्प भ्रान्ति निवृत्त हो जाती है। अत: अज्ञानी ही जगत् को ब्रह्म से भिन्न देखता है। वृद्ध पुरुषों ने भी कहा है कि-उषर भूमि मृगतृष्णा के पानी को बहाने वाली नदी को प्राप्त नहीं कर सकती और न मृगतृष्णिका के पानी से भरी हुई नदी उषर भूमि का स्पर्श कर सकती क्योंकि ऐसी नदी है ही नहीं। स्वयं भी ब्रह्म का नाश नहीं होता क्योंकि वह अक्षर है। शीतोष्णादि दून्दू भी उसका स्पर्श नहीं कर सकते। क्योंकि वह स्पर्श धर्म से अतीत है। जल में डूब नहीं सकता, मिट्टी में लीन नहीं हो सका क्योंकि ब्रह्म अरस और अगन्ध है, व्यापक होने से, आकाश में लीन नहीं हो सकता। उपनिषद् में लिखा है कि वह ब्रह्म शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध आदि धर्मों से अतीत है तथा अव्यय है। गीता में भी इसी आशय से कहा है कि यह आत्मा जन्मता, मरता नही, पैदा होकर फिर कभी पैदा नहीं होता, क्योंकि यह अज नित्य शाश्वत पुराण (सनातन) है शरीरों के नाश से भी इसका नाश नहीं होता। शस्त्रों से नहीं काटा जा सकता। अग्नि इसको जला नहीं सकती। पानी से गीला नहीं होता और वायु इसका शोषण नहीं कर सकता क्योंकि यह अच्छेद्य, अदाा, अशोष्य है।

Post a Comment

0Comments

Post a Comment (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!