अलवर जिले का नाम होना चाहिए भर्तहरि नगर, खैरथल में जबरदस्त आक्रोश, रोकी जाएगी रेल

AYUSH ANTIMA
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अलवर के सांसद तथा केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव को राज्य सरकार के उस आदेश का जबरदस्त विरोध करना चाहिए, जिस आदेश के अंतर्गत सरकार ने खैरथल जिले का नाम बदलकर "भर्तहरि नगर" किया है। वस्तुतः यह आदेश महान विभूति भर्तहरि का सरासर अपमान है क्योंकि भर्तहरि का खैरथल से दूर दूर तक कोई ताल्लुक नही है। यदि राज्य सरकार भर्तहरि के प्रति इतनी श्रद्धा रखती है तो अलवर जिले का नाम अविलम्ब बदलकर "भर्तहरि नगर" करना चाहिए। उम्मीद है कि अलवर के सांसद अवश्य ही इस बारे में पहल कर भर्तहरि को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। अलवर और भर्तहरि, यह जुड़ाव न तो केवल नामों का संयोग है और न ही सिर्फ लोककथा का एक खंड; यह एक ऐसी सांस्कृतिक परत है, जिसमें इतिहास, श्रद्धा और स्थानीय पहचान एक साथ बुनी हुई मिलती है। अलवर जिले में भर्तहरि के नाम पर स्थापित मंदिर, पैनोरमा और उनसे जुड़ी लोककथाएँ इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि भर्तहरि की छवि यहाँ के सामाजिक, धार्मिक जीवन में गहराई से समा चुकी है। स्थानीय लोग भर्तहरि को कई बार सन्यासी-कवि, तपस्वी तथा चमत्कारिक गुणों वाला संत मानते हैं; वहीँ कुछ कथाएँ उन्हें उज्जैन-सम्राट के रूप में भी प्रस्तुत करती हैं। अलवर के परिदृश्य में सबसे ठोस रूप में जो प्रमाण दिखाई देता है, वह है स्थल-आधारित: सरिस्का के नजदीक स्थित भर्तहरि मंदिर, अलवर में स्थापित ‘राजा भर्तहरि पैनोरमा’ तथा समय-समय पर होने वाले मेलों-पर्वों की परंपरा। ये संस्थाएँ और आयोजन स्थानीय समुदाय की आस्था तथा पर्यटन रुचि दोनों का द्योतक हैं। मंदिर और पैनोरमा यह बताते हैं कि स्थानिक प्रशासन और स्थानीय समाज ने भर्तहरि की लोक-छवि को सांस्कृतिक प्रस्तुति और स्मृति के रूप में संरक्षित किया है। यही वास्तविक, जाँची-पड़ी चीज़ें हैं, जिन पर हम ठोस प्रमाण आधारित चर्चा कर सकते हैं।
एक खोजपरक नजरिए से आगे बढ़ना हो तो चार प्रमुख रास्ते उपयोगी होंगे। प्रथम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और राजस्थान राज्य पुरातत्व विभाग के अभिलेखों का अध्ययन करके मंदिरों, स्मारकों और संरचनात्मक तत्वों की वास्तविक निर्माण-तिथि और संरक्षण-स्थिति की पुष्टि की जा सकती है। द्वितीय, स्थल पर मौजूद किसी भी शिलालेख या पुरानी दीवार-लिखाई के अभिलेखों का पेपर-ट्रेल बनाकर स्थानीय इतिहास के ठोस सुराग जुटाये जा सकते हैं। तृतीय, गांव-स्तरीय मौखिक परंपराओं का व्यवस्थित रिकॉर्डिंग और साक्षात्कारों के माध्यम से वह सामुदायिक स्मृति प्राप्त की जा सकती है, जो लिखित इतिहास में छूट जाती है। चतुर्थ, साहित्यिक तुलना — विशेषकर उज्जैन से जुड़े भर्तहरि-काव्य तथा अलवर की कथाओं के विश्लेषण, यह बताने में मदद करेगा कि किस हद तक स्थानीय कथानक और व्यापक साहित्यिक परंपरा एक-दूसरे से मिलती-जुलती हैं। अलवर के साथ साथ तिजारा के विधायक बाबा बालकनाथ, जो कि गोरखनाथ सम्प्रदाय के अनुयायी है, को भी चाहिए कि वे अलवर जिले का नाम "भर्तहरि नगर" करवाने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करे। यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि राजस्थान के 41 जिलों में से किसी भी जिले का नाम धार्मिक आधार पर परिवर्तित नही किया गया है। यदि जिलो के नाम धार्मिक और ऐतिहासिक स्तर पर बदलने है तो भरतपुर का लोहागढ़, जयपुर का पिंकसिटी, राजसमन्द का श्रीनाथ जी और अजमेर का ख्वाजा साहब आदि करना मुनासिब होगा। यह भी उल्लेखनीय है कि पिछले 50-60 साल से अलवर में भर्तहरि के नाटक का सफलतापूर्वक मंचन हो रहा है। ऐसे में खैरथल का नाम "भर्तहरि नगर" क्यो, क्या इसके पीछे कोई गहरा राजनीतिक षड्यंत्र है या किसी राजनेता को खरबपति बनाने की योजना है ?
  
*बाबा बालकनाथ और भर्तहरि*

तिजारा विधायक बाबा बालकनाथ का भर्तहरि से क्या ताल्लुक है, इसे विस्तार से बताना इसलिए आवश्यक है ताकि वे अलवर जिले का नाम "भर्तहरि नगर" करवाने के लिए विधानसभा में प्रस्ताव लेकर आए। हकीकत यह है कि अलवर ज़िले के भर्तहरि धाम का नाम केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि राजनीतिक समीकरणों में भी अहम स्थान रखता है। यह धाम संत भर्तहरि की तपस्थली माना जाता है, जो नाथ संप्रदाय के एक प्रमुख संत थे। यहां हर साल लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचते हैं और नाथ परंपरा का यह केंद्र राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश व उत्तर भारत के साधु-संतों का संगम स्थल है। इसी धार्मिक धरोहर से ताल्लुक रखते हैं महंत बालकनाथ, जो गोरखनाथ पंथ के प्रमुख संतों में गिने जाते हैं और वर्तमान में भाजपा के सांसद हैं। बालकनाथ का आध्यात्मिक घराना सीधे-सीधे भर्तहरि परंपरा से जुड़ा है। उनके मठ की आध्यात्मिक जड़ें भर्तहरि की साधना स्थली से पोषित हुई हैं, और वे खुद को नाथ संप्रदाय के उसी उत्तराधिकार की कड़ी मानते हैं।

*आध्यात्मिक से राजनीतिक यात्रा*

बालकनाथ ने भर्तहरि धाम की लोकप्रियता और नाथ संप्रदाय के श्रद्धालु आधार को एक सशक्त जनसमर्थन में बदला। भर्तहरि परंपरा के अनुयायी, जो राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में व्यापक रूप से फैले हुए हैं, बालकनाथ की राजनीतिक ताकत की रीढ़ माने जाते हैं। धार्मिक आयोजनों में उनकी मौजूदगी और संत छवि ने उन्हें "साधु-राजनीतिज्ञ" की पहचान दी।

*धार्मिक पूंजी का राजनीतिक लाभ*

भर्तहरि से जुड़ाव बालकनाथ को केवल आध्यात्मिक मान्यता ही नहीं, बल्कि व्यापक सामाजिक पहुंच भी देता है। भर्तहरि धाम के मेले, यात्राएं और उत्सव राजनीतिक रूप से भी मंच बन जाते हैं, जहां से बालकनाथ सीधे जनता से जुड़ते हैं। इस धार्मिक-सामाजिक नेटवर्क ने उन्हें चुनावी राजनीति में बढ़त दी, खासकर ग्रामीण और धार्मिक वोटरों के बीच।

*निचोड़*

भर्तहरि और बालकनाथ का संबंध केवल गुरु-परंपरा या संप्रदाय तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आध्यात्मिक विरासत के साथ-साथ राजनीतिक ताकत का भी आधार है। भर्तहरि धाम, अलवर में नाथ परंपरा की इस जड़ को साध कर बालकनाथ ने अपने लिए एक ऐसा जनाधार तैयार किया है, जो धर्म और राजनीति—दोनों क्षेत्रों में उनकी पकड़ मजबूत करता है। ऐसे में शिष्य होने के नाते बालकनाथ को राजनीति से ऊपर उठकर उन्हें भर्तहरि के नाम को चिर स्थायी बनाने के लिए अलवर जिले का नाम बदलवाने के लिए आंदोलन करना चाहिए।
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