मनां भज राम नाम लीजे, साधु संगति सुमिर सुमिर, रसना रस पीजे॥ साधु जन सुमिरन कर, केते जप जागे। अगम निगम अमर किये, काल कोइ न लागे॥
नीच ऊंच चिन्तन कर, शरणागति लीये। भक्ति मुक्ति अपनी गति, ऐसे जन कीये॥ केते तिर तीर लागे, बंधन भव छूटे। कलि मल विष जुग के, राम नाम खूटे॥
भरम करम सब निवार, जीवन जप सोई। दादू दुःख दूर करण, दूजा नहिं कोई॥ अर्थात सत्पुरुषों की सङ्गति करके राम नाम के जप द्वारा भक्ति रस को पान करो। इसी मार्ग से चलते हुए कितने ही साधक राम नाम का चिन्तन करके मोह निद्रा से जग गये। राम नाम का जप करके वेदों से भी दुर्विगाह्य ब्रह्म-तत्त्व को जान कर अमर हो गये। नाम के स्मरण मात्र से नीच भी भगवान् के शरण में आकर प्रेमाभक्ति द्वारा मुक्त हो गये। नाम के स्मरण से ही इस कलिकाल में भी पूर्व जन्मों के किये हुए पापों का नाश करके भवबन्धन से मुक्त हो गये। हे साधक ! कर्मों को भ्रमजाल समझ कर उनको त्याग दे और अपना शेष जीवन भगवान् के भजन में ही लगा दे, क्योंकि तेरे जन्मादि दुःखों को दूर करने वाला भगवान् के सिवा दूसरा कोई नहीं दिखता है। भागवत में लिखा है कि-यह कलियुग यद्यपि दोषों की खान है, फिर भी इसमें एक बड़ा गुण है। जो भगवान् श्रीकृष्ण का नाम जपता है, वह भव बन्धन से छूट कर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। मृत्यु के समय पापी अजामील ने पुत्र के बहाने भगवन्नाम 'नारायण' का उच्चारण करके परम पद को प्राप्त कर लिया। जो अवहेलना से तथा गिरते पैर फिसलते, अङ्ग भङ्ग होते, सांप के डसते, आग में जलते एवं चोट लगने पर 'हे हरे !' कह कर द्रवित हृदय से भगवान् के नाम का उच्चारण करता है, वह भी जब यमयातना को प्राप्त नहीं होता तो फिर आदर से जो राम का नाम लेता है, उसका तो कहना ही क्या है ?